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तत्वार्थश्लोकवार्तिके
तद्विलोपेखिलख्यातव्यवहारविलोपनम् । तृप्यादिकार्यसिद्धयर्थमाहारादिप्रवृत्तितः ॥ २२३ ॥
बौद्धजन कार्यको तो बापकहेतु मानते हैं, किन्तु कारणको ज्ञापकहेतु नहीं मानते हैं। क्योंकि कार्य तो अवश्य ही कारणोंसे उत्पन्न होते हैं । किन्तु कारण अवश्य ही कार्यको उत्पन्न करे ऐसा नियम नहीं है। क्योंकि अनेक कारण कार्यको उत्पन्न किये बिना ही स्वरूपयोग्यतारूप कारणतासहित बने रहते हैं। अन्य कारणोंके एकत्रित न हो पानेसे फलको नहीं उत्पन्न कर पाते हैं। जैसे कि खेतमें पडी हुई मट्टी अन्य कुम्हार, चक्र, जल, आदि कारणोंके न मिलनेसे घटको नहीं बना पाती है। अतः कारणको ज्ञापक हेतु बनानेसे व्यभिचार दोष आता है। इस प्रकार बौद्धोंका अनुभव होनेपर आचार्य महाराज कहते हैं कि अन्यकारणोंकी विकलता ( रहितता) और कारणोंकी सामर्थ्यका प्रतिबन्ध करके अपने हेतुस्वभावपनको नहीं प्राप्त होकर तो कारणहेतु व्यभिचारी बन जायगा। किन्तु अन्य कारणोंकी परिपूर्णता और कार्य करनेमें हेतुकी सामर्थ्यका प्रतिबंध न होनेसे यहां कारणहेतुकी विशिष्टताको विशेषरूपसे जाना जा सकता है । छाया उष्णता, आदिके भेदसे छत्र, अग्नि, आदिका कारणपना सुव्यवस्थित होरहा है। यदि अन्य कारणोंकी पूर्णता और हेतुसामर्थ्यकी अक्षुण्णता रहते हुये भी उस कारणसे कार्यके ज्ञान होनेका विलोप हो जानेको बौद्ध मानेंगे तो जगत्प्रसिद्ध सम्पूर्ण-व्यवहारोंका विलोप हो जावेगा। तेलके लिये तिलोंका उपादान न हो सकेगा। भविष्यमें सुख, शान्तिको प्राप्त करनेके लिए धर्मसाधनमें प्रवृत्ति न हो सकेगी, किन्तु ऐसा नहीं है । तृप्ति, प्यास बुझना आदि कार्योकी सिद्धिके लिये आहार, जलपान, आदिमें प्रवृत्ति होना देखा जा रहा है । अतः सभी कारण तो नहीं, किंतु कार्यको नियमसे करनेवाले कारणोंको ज्ञापक हेतु मानना न्याय्य है । " किञ्चित्कारणं हेतुर्यत्र सामाप्रितिबंधकारणान्तरावैकल्ये" ऐसा परीक्षामुखमें लिखा है।
हेतुना यः समग्रेण कार्योत्पादोनुमीयते । अर्थान्तरानपेक्षत्वात्स स्वभाव इतीरणे ॥ २२४ ॥ कार्योत्पादनयोग्यत्वे कार्ये वा शक्तकारणम् । स्वभावहेतुरित्यायैर्विचार्य प्रथमे मतः ॥ २२५॥ खकायें भिन्नरूपैकखभावं कारणं वदेत् । कार्यस्यापि स्वभावत्वप्रसंगादविशेषतः ॥ २२६ ॥ समग्रकारणं कार्यस्वभावो न तु तस्य तत् । कोऽन्यो ब्यादिति ध्वस्तप्रज्ञनैरात्मवादिनः ॥ २२७ ॥