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तत्वार्थचिन्तामणिः
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कारणकी उपलब्धिके उदाहरण इस प्रकार विचार लेना चाहिये कि विशिष्ट ढंगके मेघोंकी उनति होनेसे भविष्यमें होनेवाली वर्षाकी विशिष्टता उससे जानली जाती हैं। तथा छायाविशेषकी छत्रसे ज्ञप्ति हो जाती है। इसी ढंगके अन्य निदर्शन विचार लिये जासकते हैं।"
. कारणानुपलंभेपि यथा कायें विशिष्टता। . बोध्याभ्यासातथा कार्यानुपलंभेपि कारणे ॥ २१९ ॥ .
कारणका प्रत्यक्ष न होनेपर भी जिस प्रकार कार्यमें विशिष्टताको अभ्याससे जान लिया जाता है, अर्थात् प्रत्यक्षकार्यसे परोक्षकारणका अनुमान हो जाता है, उसी प्रकार कार्यका अनुपलम्भ होनेपर भी कारणमें विशिष्टता जानली जाती है । भावार्य-प्रत्यक्ष हो रहे कारणहेतुसे परोक्ष कार्यका अनुमान करलिया जाता है। समर्थ कारणं तेन नात्यक्षणगतं मतम् ।
। तद्बोधे येन वैयर्थ्यमनुमानस्य गद्यते ॥ २२० ॥
कार्यके करनेमें समर्थ हो रहे कारणको हम हेतु मानते हैं, तैसा होनेसे अन्त्यक्षणको प्राप्त हो रहा कारण हमारे यहां हेतु नहीं माना गया है, जिससे कि उत्तरक्षणमें उस कार्यका प्रत्यक्ष हो जानेपर अनुमानप्रमाण उठानेका व्यर्थपना कहा जाय । भावार्थ-कारणकूट मिलकर समर्थ सामग्री हो जानेसे अव्यवहित उत्तरक्षणमें कार्य उत्पन्न हो जाता है। ऐसी दशामें अन्त्यक्षणको प्राप्त हो रहे कारणसे कार्यका अनुमान करना व्यर्थ है । क्योंकि अनुमानके समयमें तो कार्यका प्रत्यक्ष ही हो जायगा।।
न चानुकूलतामात्रं कारणस्य विशिष्टता। येनास्य प्रतिबंधादिसंभवाद्वयभिचारिता ॥ २२१ ।।
तथा कारणको ज्ञापक हेतु बनानेके. प्रकरणमें खरूपयोग्यतारूप केवल अनुकूलताको भी हम कारणकी विशिष्टता नहीं मानते हैं । जैसे कि वृक्षमें लग रहा या कोनेमें धरा दुभा दंड तो घटका कारण नहीं है। हां, स्वरूपयोग्य होकर अनुकूल है, फलका उपधापक नहीं है, तिसी प्रकार अंकुरके अनुकूल हो रहे कारण अकेळे खेत, बीज, जल, आदिको ही हम शाक्क कारण नहीं मानते हैं, जिससे कि इस कारणका प्रतिबंध, पृथक्करण, आदि सम्भवनेसे कारणतिका, व्यभिचार दोष बन बैठे अर्थात् कार्य करानेमें उपयोगी हो रहे और कारणपनेकी सामर्थ्यके प्रतिबन्धसे रहित कारणको कार्यका ज्ञापक हेतु माना जाता है । अन्य सभी कारणोंको नहीं ।
वैकल्यप्रतिबंधाभ्यामनासाद्य स्वभावताम् । विशिष्टतात्र विज्ञातुं शक्या छायादिभेदतः ॥ २२२ ॥