________________
३४८
तत्त्वार्थश्लोकबार्तिके
उपलभ्यत्वानुपलभ्यत्वस्वरूपभेदादेव भिन्नादुपलंभानुपलंभी मंतव्यौ न पुनः खविषयभेदादिति नियम्यते विधिप्रतिषेधात्मकैकवस्तुविषयत्वस्य तयोविशेषाभावात् ।
एक वस्तुके उपलभ्यपन और अनुपलभ्यपन-नामक स्वरूपभूत धर्मोके भेदसे ही उपलम्भ और अनुपलम्भोंको भले ही मिन्न मान लेना चाहिये, किन्तु फिर अपने धर्मारूप विषयके भेदसे ये हेतु भिन्न नहीं हैं, इस प्रकार नियम किया जाता है। क्योंकि विधि और प्रतिषेधस्वरूप एक वस्तु ( साध्य ) को विषय करनापन उन दोनोंमें विशेषतारहित होकर विद्यमान है। भावार्थ-बौद्धोंके समान प्रमेयभेदसे प्रमाणके भेद होनेको जैसे हम नहीं मानते हैं, प्रमाण कई होय किन्तु सामान्य विशेष आत्मक वस्तुनामका प्रमेय एक ही है । हां, प्रत्यक्षप्रमाणका विषयपन, अनुमानका विषयपन, आगमद्वारा जानने योग्यपन, आदि धर्मोको वस्तुमें न्यारा न्यारा अवश्य मानते हैं । उसी प्रकार विषयी अर्थके भेदसे उनके ज्ञापक हेतुओं का भेद हमें अभीष्ट नहीं है। हां, अर्थके धर्मोकी अपेक्षासे हेतुसंबंधी भेद बन जाना समुचित है। " यावन्ति कार्याणि तावन्तः प्रत्येकस्वभावभेदाः " ऐसा अकलंकवचन है।
यथैवेत्युपलंभेन प्राधान्याविधिगुणभावात् प्रतिषेधश्च विषयीक्रियते तथानुपलंभेनापि । यथानुपलंभेन प्रतिषेधः प्राधान्यात्, विधिश्च गुणभावात्तथोपलंभेनापीति यथायोग्यमुदाहरिष्यते । ततः संक्षेपादुपलंनुपलंभावेव हेतू प्रतिपत्तव्यौ ।
जिस ही प्रकार यो उपलम्भ हेतुकरके प्रधानतासे विधिको और गौणरूपसे निषेधको विषय किया जाता है, तिस ही प्रकार अनुपलम्भ हेतुकरके भी प्रधानतासे विधि और गौणरूपसे निषेध जाना जाता है । तथा जिस प्रकार अनुपलम्भकरके प्रधानतासे निषेध और गौणरूपसे विधिका जानना अभीष्ट है, उसी प्रकार उपलम्भ करके भी प्रधानतासे निषेध और गौणरूपसे विधिका ज्ञापन करना इष्ट करलो । इन सब हेतुभेदोंके यथायोग्य भविष्यमें उदाहरण दिये जायेंगे। तिस कारण संक्षेपसे उपलम्भ और अनुपलम्भ ही दो हेतु समझलेने चाहिये ।
तत्तत्रैवोपलंभः स्यात्सिद्धः कार्यादिभेदतः। कार्योपलब्धिरग्न्यादौ धूमादिः सुविधानतः॥ २१७ ॥
तिस कारण तिन हेतुभेदोंमें उपलम्भ नामका हेतु तो कार्य, व्याप्य, कारण, पूर्वचर, उत्तरचर, सहचर, इन मेदोंसे छह प्रकारका सिद्ध है । जैनसिद्धान्त अनुसार हेतुओंकी अच्छी भेद गणना करनेसे अग्नि आदि कारणोंको साध्य करनेमें धूम आदिक हेतु कार्य उपलब्धिरूप हैं। अर्थात् अग्निके कार्य धूमहेतुके दीख जानेसे अग्निरूप कारणका अनुमान हो जाता है।
कारणस्योपलब्धिः स्याद्विशिष्टजलदोन्नतेः । वृष्टौ विशिष्टता तस्याचिंत्या छायाविशेषतः ॥ २१८ ॥