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________________ तत्वार्थचिन्तामणिः बौद्धजनें को भी स्वभाव और कार्यके सदृश कारणहेतु मानना आवश्यक होगा। देखिये, रससे एक सामग्रीका अनुमानकर रूपका अनुमान चाहनेवालोंको कारण हेतु इष्ट करना पडता है । मुखमें चाट लिये गये रससे एक सामग्रीका पहिले अनुमान होता है । यह तो कार्यसे कारणका अनुमान है । किन्तु सामग्रीसे पुनः रूपका अनुमान करना यह कारणसे कार्यका अनुमान है । दाल या शाकमें पडे हुये नीबूके रसका ज्ञान तो रसनासे प्रत्यक्ष हो रहा है । किंतु नीबू के रस जलमें रूपका ज्ञान अनुमानसे ही हो सकता है । रूपसामग्री रसको उत्पन्न करनेमें रूपको बनाती हुई ही व्यापार कर सकती है । अर्थात् रूपको नहीं बनाकर अकेले रसका बनाना उससे असंभव है । अतः रूपस्कंधस्त्ररूप एक सामग्रीसे खट्टी दालमें नीबूके रूपका ज्ञान हो जाना, कारणहेतुद्वारा अनुमान - साध्य कार्य है। हां, यह अवश्य है कि मणि, मंत्र आदि यदि अग्निकी सामर्थ्य नष्ट हो गई है, ऐसी दशामें अग्निसे दाह करनेका अनुमान नहीं किया जा सकता है । तथा बोरे में भरे हुये गेहूं चना आदिसे उनके अंकुरोंका अनुमान नहीं होता है। क्योंकि खेत, पानी, मिट्टी, आदि कारणोंकी विकलता होनेसे बीज अकेला अंकुरोंको नहीं पैदा करता है । यदि सामग्री से युक्त हो रहे हेतुकरके जो कार्यके उत्पादका अनुमान किया जाता है, वह अन्य अर्थोकी नहीं अपेक्षा होनेसे स्वभाव हेतु है । ऐसा कहोगे अथवा कार्यके उत्पाद करानेकी योग्यता होते संते कार्य करने में समर्थ हो रहा कारण यदि स्वभाव हेतु है। इसपर आर्य विद्वानों करके विचार कर पहले स्वभाव हेतुमें कारण हेतु मानना नीतियुक्त होगा । किन्तु जो बौद्ध अपने कार्य करने में मिन्नस्वरूप हो रहे एक कारणको यदि स्वभाव कहेगा, तब तो कार्यहेतुको भी स्वभाव हेतुपनका प्रसंग हो जायगा । कोई विशेषता नहीं है । अर्थात् स्वभाववान् कारणका स्वभाव कार्य हेतु हो सकता है । बुद्धपनसे कोई कहता है कि समग्र कारण तो कार्यका स्वभाव है, किन्तु उस समप्र कारणका स्वभाव वह कार्य नहीं है। इस बातको नष्ट हो गई है विचारशालिनी बुद्धि जिसकी, " और आत्माको न मानकर पदार्थोंको निःस्वभाव माननेवाले बौद्धोंके अतिरिक्त अन्य कौन कह सकेगा । अतः स्वभावहेतुसे अतिरिक्त जैसे कार्यहेतु माना जाता है, उसी प्रकार कारणहेतु भी न्यारा मानना चाहिये यत्स्वकार्याविनाभावि कारणं कार्यमेव तत् । कार्यं तु कारणं भावीत्येतदुन्मत्तभाषितम् ॥ २२८ ॥ ३५१ जो कारण अपने कार्यके साथ अविनाभाव रखता है, वह तो कार्य ही है । भविष्य में होनेवाले कारण भी कार्यके जनक माने गये हैं, जैसे कि भविष्य मे होनेवाले पत्नीवियोगरूप कारण द्वारा पहले ही तिळ, मसा आदि चिन्ह शरीरमें बन जाते हैं। यो कार्यहेतुद्वारा प्रयोजन' स जाता है । इस प्रकार बौद्धोंका यह कहना तो उन्मत्तोंका भाषण है। भला विचारो तो सही
SR No.090497
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 3
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1953
Total Pages702
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size21 MB
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