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तत्त्वार्थचिन्तामणिः
उत्तरोत्तर पर्यायोंमें धूमस्वरूप सदृशपरिणमन करता हुआ सदृश धूमसंतान तो नियमसे विशेष देश, काल, अवस्था, संसर्ग, आदिकी अपेक्षा रखता हुआ ही अग्निस्वरूप अवयवीके उत्तरोत्तर समयोंमें परिणत हुई अग्निरूप संतानोंके साथ अविनामाव रखता है। अन्यथा यानी विशेषणोंकी नहीं अपेक्षा रखकर चाहे जिस धूमसे अग्निकी ज्ञप्ति मानी जायगी तो ग्वालियाकी घडिया या इन्द्रजालिया ( बाजीगर ) के घडे अग्निके विना धूमरूप अवयवीकी संतानके ठहर जानेसे व्यभिचारका प्रसंग होगा । यों तो प्रायः सभी सद्धेतु व्यभिचारी बन जायंगे। कालिकसंबंध या दैशिक संबंध आदिसे वे हेतु साध्यके विना भी ठहर सकेंगे । ऐसी दशा होनेपर जगत्में सद्धेतुका मिलना अलीक हो जावेगा।
संतानयोरुपकार्योपकारकाभावोपि न शंकनीयः पावकधूमावयविसंतानयोस्तदभावप्रसंगात् । न चैवं वाच्यं, तयोनिमित्त निमित्तिभावोपगमात् ।
यवबीज और यव अंकुरोंका परस्परमें कार्यकारणभावको नहीं माननेवाले यदि यों शंका करें कि संतानोंमें परस्पर उपकारी-उपकृतपना नहीं है। व्यक्तियों में कार्यकारणभाव संभव है, संतानोंमें नहीं। आचार्य कहते हैं कि सो यह भी शंका नहीं करना चाहिये। क्योंकि यों तो अग्निरूप अवयवीकी संतान और धूमस्वरूप अवयवीकी संतानमें भी उस उपकार्यउपकारकभावके अभावका प्रसंग हो जायगा ।किन्तु इस प्रकार धूम और अग्निकी संतानोंमें कार्यकारणभावका अभाव तो नहीं कहना चाहिये । क्योंकि उनमें निमित्तनैमित्तिकभाव जैन, नैयायिक, मीमांसक आदि अनेक विद्वानोंसे स्वांकार किया गया है । तभी तो अग्निरूप उपादान कारणसे आदिके धुआंके उत्पन्न हो जानेपर कुछ देर पीछे भी ऊपर पहुंचगये उस धुयेंसे अग्निका ज्ञान हो जाता है। अर्थात् यहां धुरेंकी उत्तरोत्तर पर्यायोंसे अग्निको उत्तर उत्तरपर्यायोंका अनुमान हुआ है। जिस पहिली अग्नि व्यक्तिसे प्रथम धूमका उत्पादन हुआ था, उस प्रथमधूमसे प्रथम अग्निका अनुमान करना तो कठिन है । किन्तु सभी अनुमान धूमसंतानसे अग्निसंतान के हुआ करते हैं । अतः प्रथम धूमके साथ प्रथमअग्निका उपादान उपादेय भाव है। और उत्तर उत्तरधूम और अग्निकी संतानोंका परस्परमें निमित्तनैमित्तिकभाव माना गया है । समी रागी संसारी जीव संतानके लिये अनेक परिश्रम उठा रहे हैं । देशहितैषी अनेक दुःखोंको शेलते रहे हैं कि देश स्वतन्त्र होवे और संतान सुखी रहे । अनुभवनीय विषय यह है कि प्रथमधूमका उपादान कारण आग्नि है। फिर तो उपादान धूमसे ही धूम होते चले जाते हैं । अग्नि निमित्तकारण हो जाती है। जिस प्रकार कि प्रथमअङ्कुरका उपादान बीज है। किन्तु फिर मृत्तिका, जल, आतप वायु, खात, आदि उपादानोंसे ही वृक्ष बनता चला जाता है । बीज तो निमित्तकारण ही कहना चाहिये ।
___ पावक धूमावयविद्रव्ययोनिमित्तनिमित्तिभावसिद्धेस्तत्संतानयोरुपचारानिमित्तभाव इति चेन्न, तद्व्यतिरिक्तसंतानासिद्धेः। कालादिविशेषात्संतानः संतानिभ्यो व्यतिरिक्त इति .43