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तत्त्वार्थ लोकवार्तिक
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हो रहा देखा जाता है । जैसे कि असंख्यवर्षोसे चली आ रही बीजोंकी संतान और अनादिसे चली आ रही अंकुरों की संतानका परस्पर में हेतु साध्यभाव है । अंकुर संतान के बिना बीजसंतान नहीं होती है, और बीजसंतान के बिना अंकुरसंतान भी नहीं होती है, जिससे कि परस्पर में ज्ञाप्यज्ञापकभाव न होता अर्थात् अन्यथानुपपत्ति होनेसे बीजसंतान और अंकुरसंतानका हेतु हेतुमद्भाव है । तथा प्रयोग भी देखा जाता है कि इस विवक्षित देशमें जौके बीजोंका संतान चालू है। क्योंकि जौके अंकुरोंकी संतान देखी जा रही है। तथा इस देशमें जौके अङ्कुरोंका संतान है । क्योंकि जौके rint उपलब्धि हो रही है । इसी प्रकार अन्य भी अनुमानके प्रयोग हैं। नटका वांस ठीक व्यवस्थित हो रहा है । क्योंकि नट व्यवस्थित है और नटके वांसकी व्यवस्था होनेसे नट व्यवस्थित हो रहा है । जाडे सोडसे शरीर में गर्मी आती है, और शरीर की गर्मी से सौडमें गर्मी आती है, इत्यादि कार्यकारण उभयरूपसे दूसरे हेतुओंकी भी सिद्धि मान लेनी चाहिये । यों तो हेतुके चार भेद मानना अनिवार्य हो जायगा । समझे ?
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ननूषरक्षेत्रस्थेन यवबीज संतानेन व्यभिचारस्तदंकुरसंताने कचित्साध्ये तद्वीजसंताने नोह्यते तदंकुर संतानेन यवबीजमात्र रहितदेशस्थेनेति न मंतव्यं विशिष्टदेशकालाद्यपेक्षस्य तदुभयस्यान्योन्यमविनाभावसिद्धेः स्वसाध्ये धूमादिवत् । धूमावयविसंतानो हि पावकावयविसंतानैरविनाभावी देशकालाद्यपेक्ष्यैवान्यथा गोपालघटिकायां धूमावयविसंतानेन व्यभिचारप्रसंगात् ।
यहां प्रतिवादीकी शंका है कि ऊसर भूमिके खेतमें स्थित हो रही जौके बीजोंकी संतानसे व्यभिचार होता है । जबतक जौपर्याय रहेगी तबतक जौका सदृश परिणाम होती हुई संतान चलेगी। किसी पक्ष में उन जौके अंकुरोंकी संतानको साध्य करनेपर और उन जौके बीजोंकी संतानको हेतु बनानेपर ऊसरा भूमिमें बो दिये गये जौके बीजोंकी संतानसे व्यभिचार हुआ । तथा कहीं जौके बीजों की संतानको साध्य बनाकर और जौके अंकुरोंकी संतानको हेतु बनानेपर सामान्यरूप जौके बीजों से रहित देशमें स्थित हो रहे उन जौके अंकुरोंकी संतान करके भी व्यभिचार होता है । अर्थात् ऊसर भूमिमें पडे हुये जौ अपने कार्य अंकुरोंको उत्पन्न नहीं करते हैं । तथा आग, बरफ, कीडे, आदि द्वारा झुलस गये अंकुर अपने कार्य बीजोंको उत्पन्न नहीं करते हैं । इस प्रकार साध्य के न रहनेपर हेतुके रह जानेसे व्यभिचार दोष खडा है । ग्रन्थकार कहते हैं कि यह तो नहीं मानना चाहिये। क्योंकि विशिष्ट देश और विशिष्ट काल तथा विशेषरूप आकृति आदिकी अपेक्षा रखते हुये उन कार्यकारणों के उभयका परस्पर में अविनाभाव सिद्ध हो रहा है । जैसे कि अपने साध्य अग्नि आदिको साधने में देश आदिककी अपेक्षा रखते हुये धूम आदिक सद्धेतु माने गये हैं । किन्हीं नव्य न्यायवालोंने तो चौंसठ विशेषणोंसे युक्त हो रहे घूमको अनिके अन्यथा धूम अवयव आदिमें व्यभिचार हो जाते हैं । धूमस्वरूप
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साधनेमें सद्धेतु माना है । अवयवीका कुछ कालतक