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तत्त्वार्यश्लोकवार्तिके
चेत्, कुतः कालादिविशेषस्तेषां संतानस्यानादिपर्यवसानत्वादप्रतिनियतक्षेत्रकार्यकारित्वाच्च संतानिनां तद्विपरीतत्वादिति चेन्न, तस्य पदार्थातरत्वप्रसंगात् ।
यदि यहां कोई यों कहे कि अग्निरूप अवयवी द्रव्य और धूमस्वरूप अवयवी द्रव्यमें निमित्त नैमित्तिकभाव सिद्ध हो रहा है। इस कारण उनकी संतानोंमें भी उपचारसे निमित्तनैमित्तिकभाव मान लिया गया है। वस्तुतः संतानोंमें उपकार्य उपकारक भाव नहीं है । आचार्य कहते हैं कि यह तो न कहना । क्योंकि उन व्यक्तियोंसे भिन्न होकर धूमसंतान और अग्निसंतान सिद्ध नहीं हो रहा है । अर्थात् निमित्त हो रहे अग्निसंतामसे नैमित्तिक धूमसंतानकी उत्पत्ति होना सिद्ध है। सन्तानियोंसे सन्तान अभिन्न है । यदि कोई यों कहे कि काल आदि विशेषोंकी अपेक्षा संतानियोंसे संतान भिन्न है । इस प्रकार कहनेपर तो हम पूछते हैं कि उन संतानियों और संतानके काल आदि विशेष भला कैसे हुआ ? बताओ। यदि यों कहोगे कि संतानका काल अनादिसे अनंततक है और संतानीका उससे विपरीत है, यानी सादिसान्त है । तथा संतानको विशेषरूपसे नियत नहीं हो रहे प्रायः सर्व क्षेत्रोंमें कार्यका कर्त्तापना है। और संतानी व्याक्ति नियत क्षेत्रमें हो रहे कार्यको करता है । इस प्रकार संतान और संतानियोंका देश, काल न्यारा न्यारा है । ग्रन्थकार कहते हैं कि वैशेषिकोंको यह तो नहीं कहना चाहिये । क्योंकि ऐसा माननेपर उस संतानको संतानियोंसे सर्वथा भिन्न न्यारा पदार्थ हो जानेका प्रसंग होगा, जो कि इष्ट नहीं किया गया है।
संतानो हि संतानिभ्यः सकलकार्यकारणद्रव्येभ्योर्थातरं भवंस्तवृत्तिरतवृत्तिर्वा ? तवृत्तिश्चेन तावद्गुणस्तस्यैकद्रव्यवृत्तित्वात् । संयोगादिवदनेकद्रव्यवृत्तिः संतानो गुण इति चेत् स तर्हि संयोगादिभ्योऽन्यो वा स्यात्तदन्यतमो वा ? यद्यन्यः स तदा चतुर्विंशतिसंख्याव्याघातः, तदन्यतमश्चेत्तर्हि न तावत्संयोगस्तस्य विद्यमानद्रव्यवृत्तित्वात् । संतानस्य कालत्रयवृत्तिसंतानिसमाश्रयत्वात् । तत एव न विभागोपि परत्वमपि वा तस्यापि देशापेक्षस्य वर्तमानद्रव्याश्रयत्वात् ॥ - हम जैन पूछते हैं कि पूर्व, उत्तर कालोंमें होनेवाले सम्पूर्ण कार्यकारण द्रव्यरूप संतानियोंसे सर्वथा मिन्न होता हुआ संतान क्या उन संतानियोंमें वर्तता है ! अथवा उन संतानियोंमें नहीं वर्तता है ! बताओ । यदि पहिले पक्षके अनुसार उन संतानियोंमें संतानकी वृत्ति मानोगे तो अनेक कार्यकारणरूप, द्रव्योंमें वर्त रहा वह संतानगुण पदार्थ तो हो नहीं सकता है । क्योंकि रूप, रस, आदिक गुण एकदव्यमें रहते हैं । और नैयायिकोंने संतानको अनेक द्रव्योंमें वर्तता हुआ माना है। हां, यदि संयोग, विभाग, परत्व, अपरत्व, द्वित्व आदि संख्या इन गुणोंके समान संतानको मी अनेक द्रव्योंमें वर्तनेवाला गुण मानोगे तब तो वह संतान क्या संयोग आदि गुणोंसे भिन्न माना जायगा ! अथवा संयोग आदि अनेक आश्रित गुणोंमेंसे कोई एक अनेकस्थ गुणस्वरूप माना