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________________ _ तत्त्वार्थचिन्तामणिः पक्षका निषेध करके अर्थकी परिछित्तिका हेतु होनेसे वीतावीत हेतु माना जाता है । उसीका उदाहरण कहते हैं कि यह पर्वत अग्निसहित है ( विधि ) अग्निरहित नहीं है ( प्रतिज्ञा ), धूमसहित होनेसे (हेतु ) अन्यथा यानी पर्वतको अग्निरहित माना जावेगा तो धूमरहितपनेका प्रसंग हो जावेगा। देखिये, रसोईघर धूमसहित होता हुआ अग्निसहित ही देखा गया है । अग्निसे रहित हो रहा रसोई घर तो धूमरहित देखा जाता है ( निषेध ) । इस प्रकार वीतावीत हेतु सिद्ध हुआ । सो यह वीत, अवीत, और वीतावीतका त्रितय भी यदि साध्य सद्भावके अभाव होनेपर नहीं सम्भवनेकी टेव रखता है, तब तो अन्यथानुपपत्तिकी सामर्थ्यसे ही इनमें गमकपना आया। फिर वीतपन, अवीतपन, आदि करके ही कुछ प्रयोजन नहीं सधा । यदि वीतपन आदि करके ही सद्धेतुपना मान लिया जायगा तो अन्यथानुपपत्तिके न होनेपर भी मित्रातनयत्व आदि हेत्वाभासोंको वीत या अवीतपनेकरके गमकपनेका प्रसंग हो जावेगा । अतः वीत आदिका कहा गया लक्षण या भेद करना प्रशस्त नहीं है। ___यदि पुनरन्यथानुपपत्तिर्वीतादित्वं प्राप्य हेतोर्लक्षणं तदा "देवतां प्राप्य हरीतकी विरेचयते " इति कस्यचित्सुभाषितमायातं । हरीतक्यन्वयव्यतिरेकानुविधानाद्विरेचनस्य न खदेवतोपयोगिनी तदन्वयव्यतिरेकानुविधानाभावात्तस्येति प्रकृतेपि समानं । हेतोरन्यथानुपपत्तिसदसवप्रयुक्तत्वाद्गमकत्वागमकत्वयोरिति न किंचिद्वीतादित्रितयेन लक्षणानां भेदानां वा सर्वथा गमकत्वानंगत्वात् सर्वभेदासंग्रहाच्च ॥ - यदि फिर प्रतिवादियोंका यह कहना होय कि वीत आदिपनेको प्राप्त होकर अन्यथानुपपत्ति तो हेतुका लक्षण बनसकता है । स्वतंत्र अन्यथानुपपत्ति हेतुका लक्षण नहीं है । आचार्य कहते हैं कि तब तो यह परिभाषा चरितार्थ हुई कि देवताको प्राप्त होकर हरै रेचन ( दस्तावर ) कराती है। देवताको प्राप्त नहीं हुई हर्र कुछ नहीं करेगी। इस प्रकार किसीका विनोदयुक्त या श्रद्धापूर्ण भाषण मान लिया आगया कहना चाहिये । भावार्थ-शक्ति दुर्गा आदि देवताओंके किसी अन्धभक्तका विचार है कि सम्पूर्ण कार्योंको देवता करते हैं । अन्नदेवता, जलदेवता ही गेहूं, जौ, चना, पानी, ठंडाई, आदिमें प्रविष्ट होकर भूख, प्यासको दूर करते हैं। रेलगाडीको चलानेवाले इजनमें भी धुआं निकालनेवाले भोंपूके पीछे महादेबकी पिण्डी स्थापित है । वही एंजिनको चलाती है । मोटरकारमें भी देवता घुसा हुआ है । घडी, कुतुबनुमा, थरमा मेटर ( तापमापकयंत्र ) बिजलीघर आदिमें भी देवता कार्य करते हैं, इत्यादि अज्ञतापूर्ण किंवदन्तियोंको कहनेवालोंने पदार्थोकी स्वतंत्रशक्ति जैसे नहीं मानी है, उसी प्रकार इस प्रतिवादीने अन्यथानुपपत्तिको हेतुकी शक्ति न मानकर वीतपन अवीतपन आदिको ही हेतुका प्रधानस्वरूप स्वीकार किया है। अन्यथानुपपत्तिको गौणरूप दिया गया है । जिस प्रकार हरड, ऐंजन, कुतुबनुमा आदिमें कोई देवता नहीं बैठा है, सम्पूर्ण पदार्थ अपनी गांठकी शक्तियोंसे अर्थक्रियाओंको कर रहे हैं, अन्यथानुपपत्ति भी हेतुका स्वरूप होती हुई हेतुको साध्यका गमक बना देती है । मध्यमें वीत आदिपनेको डालनेकी आवश्य
SR No.090497
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 3
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1953
Total Pages702
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size21 MB
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