________________
तत्वार्थ लोकवार्त
और भी यहां जो यह कहा गया था कि उदाहरणके समानधर्मपनेसे साध्यको साधनेवाला हेतु है । इस प्रकार वीतनामक हेतुका लक्षण है । क्योंकि उस हेतुके स्वरूपकरके साध्यरूप अर्थी ज्ञप्ति करा देनापन वीतद्देतुका धर्म है, ऐसा मूलग्रन्थोंमें कहा गया है । उसीको उदाहरणपूर्वक स्पष्ट दिखलाते हैं कि
अनित्यः शब्दः उत्पत्तिधर्मकत्वाद्घटवदिति शद्वरूपेणोत्पत्तिधर्मकत्वेन । नित्यत्वार्थस्य परिच्छेदात् । तथोदाहरणवैधम्र्म्यात्साध्यसाधनं हेतुरित्यवीतलक्षणं परपक्षप्रतिषेधेनार्थपरिच्छेदने वर्त्तमानमवीतमिति वचनात् । तद्यथा-नेदं नैरात्मकं जीवच्छरीरम प्राणादिमत्त्व - प्रसंगादिति । यदुभयपक्ष संप्रतिपन्नमप्राणादिमत्तन्निरात्मकं दृष्टं यथा घटादि न चेदमप्राणादिपज्जीवच्छरीरं तस्मान्न निरात्मकमिति निरात्मकत्वस्य परपक्षस्य प्रतिषेधनं जीवच्छरीरे सात्मकत्वस्यार्थपरिच्छिाचे हेतुत्वादिति न्यायवार्त्तिकका रवचनात् ।
1
शद्व (पक्ष) अनित्य है ( साध्य ), उत्पत्ति नामके धर्मसे सहित होनेके कारण (हेतु ), जैसे कि घड़ा । यहां शद्वके स्वरूप हो रहे उत्पत्ति धर्मसहितपने करके अनित्यपनारूप साध्य अर्थज्ञप्ति की गई है । यह पहिले वीतका उदाहरण हुआ । तथा उदाहरण के विधर्मापनेसे साध्यको साधनेवाला हेतु है । यह अवीत हेतुका लक्षण है । क्योंकि साध्यसे न्यारे परपक्षका निषेध करके साध्य अर्थकी ज्ञप्ति करनेमें वर्त्तरहा हेतु अवीत है । इस प्रकार ग्रन्थोंमें कहा गया है । उसीको उदाहरण द्वारा कहते हैं कि यह जीवित शरीर ( पक्ष ) आत्मरहित नहीं है ( साध्य ) । अन्यथा प्राणादिसहितपन के अभावका प्रसंग हो जावेगा ( हेतु ) । इस प्रकार निषेधपूर्वक साध्यकी विधि समझाई गई है । न्यायवार्त्तिकको बनानेवाले विद्वान् ने भी ऐसा कथन किया है कि जो वादी, प्रतिवादी, इन दोनोंके पक्ष अनुसार भले प्रकार प्राण आदि युक्तसे भिन्न जान लिया गया है, वह आत्मासे रहित देखा गया है। जैसे कि घडा, रेत, आदि पदार्थ हैं ( व्यतिरेकदृष्टान्त ), यह जीवितशरीर प्राणादिमान् से भिन्न नहीं है ( उपनय ), तिस कारण आत्मरहित नहीं है ( निगमन) । इस प्रकार आत्मरहितपनारूप परपक्षका निषेध करना जीवितशरीर में आत्मसहितपनरूप अर्थकी परिच्छित्तिका कारण होनेसे अवीत हेतु माना गया है। यहांतक दूसरे अवीतका निरूपण किया ।
तयोदाहरणसाधर्म्यवैधर्म्याभ्यां साध्यसाधनमनुमानमिति बीतावीत लक्षणं स्वपक्षविधानेन परपक्षप्रतिषेधेन चार्थपरिच्छेदहेतुत्वात् । तद्यथा - साग्निः पर्वतोयमनग्निर्न भवति धूमवत्त्वादन्यथा निर्धूपत्वप्रसंगात् । धूमवान्महानसः साग्निर्दृष्टोऽनग्निस्तु महानसो निम इति तदेतद्वीतादित्रितयं यदि साध्यभावासंभूष्णु तदान्यथानुपपत्तिबलादेव गमकत्वं न पुनर्वीतादित्वेनैवेत्यन्यथानुपपत्तिविरहेपि गमकत्वप्रसंगात् ।
तथा उदाहरण के धर्मापन और विधर्मापनसे साध्यकी ज्ञप्ति सधादेनेवाला अनुमान होता है । इस प्रकार वीत्तावीत तीसरे हेतुका लक्षण किया गया है। अपने पक्षकी विधिकरके और पर
३३२