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तत्त्वार्थचिन्तामणिः
'कि अन्यथानुपपत्तिकी सामर्थ्य से ही उत्पाद, व्यय, ध्रौव्य-रूप परिणामसे युक्त हो रहे आत्माका सहितपना साधनेमें प्राणादिमत्व हेतु समीचीन है । हां, परिणमन करनेसे रहित सर्वथा कूटस्थ आत्मा सहितपना जीवित शरीर में प्राणादिमत्त्व हेतुकरके नहीं साधा जासकता है । क्योंकि अपरिणामी आत्मासे सहितपनके साथ प्राणादिमत्त्व हेतुकी उस अन्यथानुपपत्तिका अभाव है । अतः नैयायिकोंद्वारा माना गया हेतुका दूसरा भेद भी प्रतिष्ठित नहीं हो सका ।
तथा पूर्ववच्छेषवत् सामान्यतो दृष्टमन्वयव्यतिरेकिसाधनं, यथाशिरत्र धूमादिति । तदपि केवल व्यतिरेकिणो योगोपगतस्य निराकरणादेव निराकृतं साध्याभावासंभवनियमनिश्चयमंतरेण साधनत्वासंभवात् ।
तथा तीसरा भेद अन्वय और व्यतिरेक दोनोंसे सहित हेतुको साधनेवाला " पूर्ववत् शेषवत् सामान्यतो दृष्ट " है । जैसे कि इस पर्वतमें आग है, धूम होनेसे, इस प्रयोगके धूम हेतुमें अन्वयव्याप्ति और व्यतिरेकव्याप्ति दोनों बन जाती हैं । इस प्रकार वह तीसरा अन्वय व्यतिरेकी हेतु भी नैयायिकों द्वारा स्वीकार किये गये दूसरे केवलव्यतिरेकी हेतुका खण्डन कर देनेसे ही निराकृत कर दिया गया है । क्योंकि साध्यके न रहने पर हेतुका नहीं सम्भबनारूप नियमकें निश्चय विना कोरे अन्वय या व्यतिरेकसे सद्धेतुपनेका असम्भव है ।
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तदनेन न्यायवार्तिकटीकाकारव्याख्यानमनुमानसूत्रस्य त्रिसूत्रीकरणेन प्रत्याख्यातं प्रतिपत्तव्यमिति लिंगलक्षणानामन्वयित्वादीनां त्रयेण पक्षधर्मत्वादीनामिव न प्रयोजनं ।
तिस कारण इस उक्त कथन करके न्यायवार्त्तिककी ढीका करनेवालेके उस व्याख्यानका खण्डन कर दिया गया समझलेना चाहिये, जो कि " अथ तत्पूर्वकं त्रिविधमनुमानम् पूर्ववच्छेषवत् सामान्यतोदृष्टञ्च " इस | गौतम बनाये हुये अनुमानसूत्रका योगविभागकर तीन सूत्रों के समुदाय कर देने से बखाना गया है । इस प्रकार हेतुके अन्वयसहितपन, व्यतिरेकसहितपन, और अन्वयव्यतिरेकसहितपन, लक्षणोंके तीन अवयवों करके नैयायिकों के यहां कुछ भी प्रयोजन नहीं सधा, जैसे कि बौद्धों के द्वारा माने गये पक्षवृत्तित्व, सपक्षवृत्तित्व, विपक्षव्यावृत्ति, इन तीन रूपोंसे कोई प्रयोजन नहीं निकलता है ।
नापि पूर्ववदादिभेदानां कार्यादीनामिव सत्यन्यथानुपपन्नत्वे तेनैव पर्याप्तत्वात् ।
तथा पूर्ववत् १ या शेषवत्, २ अथवा सामान्यतो दृष्ट ३ इन भेदों के त्रय करके भी कोई फल नहीं है । जैसे कि कार्य और कारण तथा अकार्यकारण इन तीन भेदोंकर के कोई अभीष्ट सिद्ध नहीं होता है । एवं वीत, आदिकोंका कोई प्रयोजन नहीं है । हेतुमें अन्यथानुपपत्ति के होनेपर उससे ही संपूर्ण प्रयोजन सिद्ध हो जाते हैं । अर्थात् अकेली अन्यथानुपपत्ति ही हेतुकी परिपूर्ण शक्ति है । यदप्यत्रावाचि उदाहरणसाधर्म्यात्साध्यसाधनं हेतुरिति वीतलक्षणं लिंगं तत्स्वरूपेणार्थपरिच्छेदकत्वं वीतधर्म इति वचनात् तद्यथा