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________________ तत्त्वार्थचिन्तामणिः तद्वाधाभावनिर्णीतिः सिद्धा चेत्साधनेन किम् । यथैव हेतोर्वेशस्य बाधाsसद्भावनिश्चये ॥ १९४ ॥ ३२१ यदि किसी अन्य कारण से उस हेतु के साध्य में बाधाओंके अभावका निर्णय सिद्ध हो गया है तो फिर इस ज्ञापकहेतु करके क्या लाभ निकला ? जिस ही प्रकार हेतुके वेश (शरीर ) को बाधा देनेवालोंके असद्भावका निश्चय हो जानेपर पुनः हेतुके लिये अन्य हेतु देने की आवश्यकता नहीं है । अर्थात् जैसे वन्हिको साधने के लिये दिये गये धूमहेतुको साधने के लिये पुनः अन्य देतुकी आवश्यकता नहीं है, क्योंकि हेतुका शरीर बाधारहित होकर पहिलेसे ही निर्णीत है । इसी प्रकार साध्य के शरीर में भी अन्य कारणोंसे बाधाओंके अभावका निर्णय होना मान लेनेपर फिर हेतुका प्रयोग करना कुछ भी प्रयोजनको करनेवाला नहीं ठहरता है । 1 तत्साधनसमर्थत्वादकिंचित्करत्वं तथा वा विरहनिश्चये कुतश्चित्तस्य सद्भावसिद्धेः सतत साधनाय प्रवर्त्तमानस्य सिद्धसाधनादपि न साघीयस्तल्लक्षणत्वं । तिस कारण किन्हीं अन्य हेतुओंको ही बाधाओंके अभाव के निर्णयको साधने में समर्थपना होने से प्रकृत कहा गया हेतु कुछ भी प्रयोजनसिद्धि करनेवाला नहीं है । अथवा तिस प्रकार चाहे जिस तिस अन्टसन्ट कारणसे बाधाओंके अभावका निश्चय माननेपर तो किसी अन्य हेतुसे उन बाधाओंका सद्भाव भी सिद्ध हो जायगा । यदि उन अन्ट सन्ट कारणोंद्वारा निरन्तर बाधाओं के अभावको • साधन करनेके लिये प्रवृत्ति करना माना जायगा, तब तो प्रकृतहेतुसे सिद्ध पदार्थका ही साधन हुआ । अतः सिद्ध साधन दोष हो जानेसे भी उन अबाधितविषयत्व आदिको हेतुका लक्षणपना अधिक अच्छा नहीं है । नन्वेवमविनाभावोपि लक्षणं माभून्निश्चयस्यापि साध्य सद्भावनियमनिश्चायायत्तत्वात् तस्य चाविनाभावाधीनत्वादितरेतराश्रयस्य प्रसंगात् इति चेन्न, अविनाभावनियमस्य हेतौ प्रमाणांतरान्निश्चयोपगमादितरेतराश्रयानवकाशात् । ऊहाख्यं हि प्रमाणमविनाभावनिश्चयनिबंधनं प्रत्यक्षानुमानयोस्तत्राव्यापारादित्युक्तं । यहां शंका है कि यों तो आप जैनोंके यहां भी इस प्रकार अन्योन्याश्रय दोष आता है । अतः हेतुका लक्षण अविनाभाव भी नहीं होवो, क्योंकि अविनाभावी हेतुका निश्चय तो साध्यके सद्भाव होनेपर ही हेतुका नियमसे होनारूप निश्वयके अधीन है । और वह नियमका निश्चय तो अविनाभाव अधीन है । इस कारण अन्योन्याश्रयदोषका प्रसंग आता है । आचार्य कहते हैं कि यह 1 किसीकी अनुज्ञा ठीक नहीं है । क्योंकि अविनाभावरूप नियमका हेतुमें निश्चय करना अन्य तर्कज्ञान नामके प्रमाणसे स्वीकार किया गया है। अतः अन्योन्याश्रयदोषको अवकाश नहीं मिलता है । उपलम्भ और अनुपलम्भको निमित्त मानकर उत्पन्न हुआ ऊह नामका प्रमाण अविनाभाव के निश्चय 41
SR No.090497
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 3
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1953
Total Pages702
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size21 MB
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