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तत्त्वार्थश्लोकवार्तिके
करानेका ज्ञापक कारण है। उस अविनामावके निश्चय करनेमें प्रत्यक्ष और अनुमानका व्यापार नहीं है, जिससे कि अन्योन्याश्रय दोष हो सके । इस बातको हम तर्कज्ञानको स्वतंत्ररूपसे परोक्ष प्रमाणपना सिद्ध करते समय कह चुके हैं।
तर्हि यत एवान्यथानुपपन्नत्वनिश्चयो हेतोस्तत एव साध्यसिद्धेस्तत्र हेतोरकिंचित्करत्वमिति चेन्न, ततो देशादिविशेषावच्छिन्नस्य साध्यस्य साधनात् सामान्यत एवोहात्तत् सिद्धरित्युक्तमायं । अथवा
नैयायिक कहते हैं कि तब तो जिस ही तर्कज्ञानसे हेतुके अविनाभावका निश्चय हुआ है, उस ही तर्कसे साध्यकी ज्ञप्ति भी हो जायगी । अतः उस साध्यका ज्ञापन करनेमें हेतु कुछ भी कार्यकारी नहीं हुआ, अकिंचित्कर हो गया। ग्रन्थकार कहते हैं कि यह तो न कहना। क्योंकि उस अविनाभावी हेतुसे देश, काल, आकार, आदिकी विशेषताओंसे युक्त हो रहे साध्यका ज्ञापन किया जाता है। ऊहसे तो सामान्यरूपसे ही उस साध्यकी ज्ञप्ति हो चुकी थी अर्थात् जितने धूमवान् प्रदेश हैं वे अग्निमान् होते हैं । इस प्रकार सामान्यरूपसे साध्यको हम पहिलेसे ही जान रहे हैं। किन्तु पर्वतमें धूमके देखनेसे विशेषस्थलपर उस समय अग्निको हेतु द्वारा विशेषरूपसे जाना जाता है। इस बातको भी हम पहिले बहुत समझाकर कई वार कह चुके हैं अथवा दूसरी बात यह भी है कि:
त्रिरूपहेतुनिष्ठानवादिनैव निराकृते ।
हेतोः पंचस्वभावत्वे तद्ध्वंसे यतनेन किम् ॥ १९५॥
हेतुके पक्षसत्व, सपक्षसत्व, विपक्षव्यावृत्ति इन तीन रूपोंकी व्यवस्था करनेवाले बौद्धवादी करके ही जब हेतुके उक्त तीनके साथ अबाधितपन तथा सत्प्रतिपक्षपन इन पांच स्वभावसहितपनेका निराकरण करदिया गया है, अर्थात् पंचरूपोंका खण्डन करने पर ही तो बौद्धोंके त्रैरूप्यकी प्रतिष्ठा हो सकती है, ऐसी दशा होनेपर उस पंचरूपपनके खण्डन करनेमें हम व्यर्थ प्रयत्न क्यों करें ! अर्थात् नैयायिकोंके हेतुकी पंचरूपताको जब बौद्धोंने ही पंचत्व ( मरण ) पर पहुंचा दिया है तो हम इसके लिये व्यर्थ कष्ट क्यों उठावें, जिस अच्छे कार्यको दूसरे लोग समीचीन ढंगसे कर रहे हैं, उसमें हमारी सहानुभूति है।
___ न हि स्याद्वादिनामयमेव पक्षो यत्स्वयं पंचरूपत्वं हेतोनिराकर्तव्यमिति त्रिरूपव्यरस्थानवादिनापि तन्निराकरणस्याभिमतत्वात् परमतमभिमतपतिषिद्धमितिवचनात् तदलमत्राभिषयतनेनेति ।
हम स्याद्वादियोंका यही पक्ष ( आग्रह ) नहीं है, जो हेतुके पंचरूपपनका स्वयं ही इस ढंगसे निराकरण करना चाहिये । किन्तु हेतुके तीन रूपकी व्यवस्थाको कहनेवाले बौद्धोंकरके भी