________________
३१८
तत्त्वार्थश्लोकवार्तिके
व्यतिरेक घटित हो जानेसे ही यदि दोनोंका अभेद मान लिया जायगा तो स्पर्शसे रूपगुणका भी भिन्नगुणस्वरूप होनेका विरोध हो जावेगा । इस प्रकार यदि कहोगे तो वैशेषिकोंके प्रति हम जैनोंको कहना पडता है कि इस कथनमें कोई सार नहीं है। क्योंकि अन्यथानुपपत्तिसे अबाधित विषयपन आदिरूपोंका अभेद है । जैसे कि उपयोगसे ज्ञानका अभेद है । परस्परमें एक दूसरेके अभाव होनेपर नहीं रहनेवाले कोई कोई पदार्थ अभिन्न होते हैं । जैसे कि सत्त्व और अर्थक्रियाकारीपन सर्वथा भिन्न नहीं हैं। और कोई कोई भिन्न होते हैं । जैसे कि ज्ञानावरणका विघटना
और वीर्यान्तरायका विघटना अविनाभाव होते हुये भी न्यारा न्यारा है । प्रकरणमें साध्याभावके प्रकार करके हेतुकी सिद्धिका अभाव होना ही अन्यथानुपपत्ति है । वही अबाधित विषयपना और असत्प्रतिपक्षपनारूप प्रतीत हो रही है । उससे भिन्न कुछ नहीं है। किन्तु इस प्रकार स्पर्श गुणसे रूपगुणका अभेद नहीं दीख रहा है । क्योंकि उनकी न्यारी न्यारी प्रतीति हो रही है । तिस कारण यह दृष्टान्तका उपन्यास करना विषम पडा । भावार्थ-स्पर्श और रूपका दृष्टान्त यहां लागू नहीं हुआ । सत्त्व और वस्तुत्वका दृष्टान्त सम हो जायगा।
ननु हेतूपन्यासे सति क्रमेण प्रतीयमानत्वादविनाभावाबाधितविषयत्वादीनामाप परस्परं भेद एवेति चेन्न, बाधकक्रमापेक्षत्वात्तत्क्रमप्रतीतेः । शकेंद्रपुरंदरादिप्रतीति वदर्थप्रतीतेः क्रमाभावात् । न ह्यभिन्नेप्यर्थे बाधकभेदो विरुद्धो यतस्तत्क्रमप्रतीतिरर्थभेद क्रमं साधयेत् । ततो नाममात्र भिद्यते हेतोरन्यथानुपपन्नत्वमबाधितविषयत्वमसत्पतिपक्षत्वमिति नार्थः।।
पुनः शंकाकारका कहना है कि अनुमानमें हेतुका उपन्यास हो जानेपर पहिले अविनाभाव जाना जाता है, और पीछे क्रमसे अबाधितविषयपन आदि प्रतीत होते हैं । इस कारण अविनाभाव और अबाधितविषयपन आदिकोंका भी परस्परमें भेद ही है। प्रन्थकार कहते हैं कि यह तो न कहना । क्योंकि बाधकोंके क्रमकी अपेक्षासे उनका क्रमसे होनापन प्रतीत हो रहा है। वस्तुतः अर्थकी प्रतीति करनेका कोई क्रम नहीं है। जैसे कि पर्यायवाची शक्र, इन्द्र, पुरन्दर, मघवा, जिष्णु, आदिकी प्रतीतियोंका कम नहीं है । एक ही इन्द्ररूप अर्थको कहनेवाले शद्बोंका उच्चारण क्रमसे होता है । किन्तु अर्थ युगपत् जानलिया जाता है । इसी प्रकार प्रकृत साध्यमें सम्भावना करने योग्य प्रत्यक्ष, अनुमान, आदिक बाधकोंका क्रम क्रमसे उत्थान होता है । और उनका निराकरण भी एक अविनाभाव द्वारा क्रमसे कर दिया जाता है । किन्तु अर्थ वही एक बना रहता है। एक अभिन्न भी अर्थमें भिन्न भिन्न बाधकोंका होना विरुद्ध नहीं है। जिससे कि उन बाधकोंका क्रमसे प्रतीत होना अर्थके भिन्नपनेको और क्रमको साध देवें, तिम कारण केवल नामका ही भेद हो रहा है । हेतुका अन्यथानुपपनपना कहो, चाहे अबाधितविषयपना और असत्प्रतिपक्षपना कहो, इस प्रकार अर्थमें कोई भेद नहीं है।