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तत्वार्थचिन्तामणिः
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देखो, अन्यथानुपपत्तिरूप नियमके कहनेपर असिद्धपन, विरुद्धपन, व्यभिचारीपन, बाधितपन, सम्प्रतिपक्षपन, इन हेत्वाभासोंकी सम्भावना नहीं है । क्योंकि विरोध है। जहां अविनाभाव विद्यमान है, वहां हेत्वाभास नहीं ठहर सकता है । जब कि एक ही रूपकरके सम्पूर्ण हेत्वाभासरूप प्रतिपक्षियोंका व्यवच्छेद होना सब चुका है तो उसके लिये तीन रूपोंको हेतुका लक्षण कथन करनेवाले बौद्धों के यहां वह भी हेतुका एक समर्थलक्षण जान लिया गया नहीं बनता है । तभी तो एक विपक्षव्यावृत्तिसे कार्य नहीं होता हुआ समझकर बौद्धोंने हेतुके दो रूप और बढा दिये । किन्तु वस्तुतः देखा जाय तो वह एक अविनाभाव ही अपने तीन स्वभावोंकर के असिद्ध आदि तीन हेत्वाभासों का व्यवच्छेद कर देता है । इस कारण हम जैनोंने हेतुके निश्चित हुये वे तीन रूप नहीं कहे हैं ।
तदवचने विशेषतो हेतुलक्षणसामर्थ्यस्यावचनप्रसंगात् तदुक्तौ तु विशेषतो हेतुलक्षणं ज्ञातमेवेति चेत् न, अबाधितविषयत्वादीनामपि वचनप्रसंगात् । तेषा - मनुक्तौ बाधितविषयत्वादिव्यवच्छेदासिद्धेः ।
बौद्ध कहते हैं कि उन तीन रूपोंके नहीं कथन करनेपर तो विशेषरूपसे हेतुके लक्षणकी सामर्थ्यका नहीं कथन करनेका प्रसंग आता है । किन्तु उन तीनों रूपोंके कथन कर देनेपर तो विशेरूपसे हेतुका लक्षण ज्ञात ही हो जाता है। अतः विशेषरूपसे व्युत्पत्ति करानेके लिये वे तीनरूप कह दिये हैं, जिनको कि आप जैनोंने अन्यथानुपपन्नके स्वभाव माना है । ग्रन्थकार कहते हैं कि यह तो बौद्ध नहीं कहें। क्योंकि यों तो बाधित विषयसे रहितपना, असत्प्रतिपक्षपना, आश्रयासिद्धि रहितपना, आदिरूपों का भी कथन करनेका प्रसंग होगा । यदि उन अबाधितपन आदि रूपोंको नहीं कहोगे तो अनि अनुष्ण है, प्रमेय होनेसे, पर्वत अग्निमान् नहीं है, पाषाणका विकार होनेसे 1 आकाशका फूल सुगंधित है, फूल होनेसे, इत्यादि हेत्वाभासोंका व्यवच्छेद नहीं सिद्ध हो पायगा । हम जैनों के यहां तो उन तीन स्वभावोंके समान अबाधितविषयत्व आदि भी अन्यथानुपपन्न हेतुके स्वभाव हैं । उन स्वभावोंसे बाधित आदि हेत्वाभासोंका निवारण हो जाता है ।
निश्चितत्रैरूप्यस्य हेतोर्बाधितविषयत्वाद्य संभवात्तद्वचनादेव तद्वयवच्छेदसिद्धेर्नाबाधितविषयत्वादिवचनमिति चेत् न, हेतोः पंचभिः स्वभावैः पंचानां पक्षाव्यापकत्वादीनां व्यवच्छेदकत्वाद्विशेषतल्लक्षणस्यैव कथनात् अन्यथा तदज्ञानप्रसंगात् । तद्विशेषविवक्षायां तु पंचरूपत्ववत् त्रिरूपत्वमिति न वक्तव्यं सामान्यतोन्यथानुपपन्नत्ववचनेनैव पर्याप्तत्वात् ।
बौद्ध कहते हैं कि जिस हेतुके त्रैरूप्यका निश्चय हो रहा है, उस हेतुके बाधितविषयपना या सत्प्रतिपक्षपना आदि दोषोंकी सम्भावना ही नहीं है । अतः उस त्रैरूप्यके कथन करनेसे ही उन बाधितपन आदि हेतु दोषोंका व्यवच्छेद सिद्ध हो जाता है । अतः अबाधितविषयत्व आदि चौथे, पांचवे, रूप नहीं कहे गये हैं। आचार्य कहते हैं कि इस प्रकार तो नहीं कहना । क्योंकि हेतुके पांच स्वभाव करके ही पक्षमें नहीं व्यापना आदि हेतु दोषोंका निवारकपना है । इस कारण