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तत्त्वार्थ श्लोकवार्तिके
विशेषरूपसे उन पांचोंको ही हेतुका लक्षण कहना चाहिये । अन्यथा उन रूपोंके अज्ञान होनेका प्रसंग होगा। हां, हेतुके आवश्यक विशेषरूपकी विवक्षा होनेपर तो बौद्धों द्वारा जैसे नैयायिकों का पंचरूपपना नहीं कहा जाता है, उसी प्रकार तीन रूपपना भी नहीं कहना चाहिये । सामान्यरूपसे एक अन्यथानुपपत्तिके वचन करके ही हेतुका पूरा कार्य सघ जायगा । अन्य पुंछले लगाना व्यर्थ है ।
रूपत्रयमंतरेण हेतोरसिद्धादित्रयव्यवच्छेदानुपपत्तेः । तत्र तस्य सद्भावादुपपन्नं वचनमिति चेत् ।
बौद्ध कहते हैं कि तीनों रूपों के विना तो हेतुके असिद्ध आदि तीन दोषोंका व्यवच्छेद होना नहीं बनता है । और उस हेतुमें तीन रूपोंके सद्भाव होनेसे हेत्वाभासोंका व्यवच्छेद बन जाता है । अतः तीनरूपका कथन करना युक्त है । इस प्रकार कहनेपर तो हम जैन सिद्धान्ती यों कहेंगे कि—
रूपत्रयस्य सद्भावात्तत्र तद्वचनं यदि । निश्चितत्वस्वरूपस्य चतुर्थस्य वचो न किम् ॥ १८३ ॥ त्रिषु रूपेषु चेद्रूपं निश्चितत्वं न साधने । नाज्ञाता सिद्धता तो रूपं स्यात्तद्विपर्ययः ॥ १८४ ॥
उस हेतुमें तीन रूपों का सद्भाव होनेसे यदि उन रूपोंका कथन करमा मानोगे तो चौथे निश्चितपन स्वरूपका कथन करना भी क्यों न माना जाय । इसपर बौद्ध यदि यों कहें कि तीन रूपों में निश्चितपनास्वरूप तो है ही । उसको हेतुमें न्यारा नहीं रक्खा जाता है । ग्रन्थकार कहते हैं कि यह तो न कहना । क्योंकि अनिश्चित होनेके कारण असिद्धता हेतुका रूप हो जायगा, जो किसमीचीन हेतुसे विपरीत है । भावार्थ — निश्चितपना नहीं कहनेसे हेतु अज्ञातासिद्ध बन बैठेगा, जो कि इष्ट नहीं है । अथवा निश्चितपना यदि हेतुमें नहीं साधा जायगा तो हेतु अज्ञात
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"होने के कारण असिद्ध बन बैठेगा, जो कि सद्धेतुपनके विपरीत है ।
पक्षधर्मत्वरूपं स्याज्ज्ञातत्वे हेत्वभेदिनः ।
हेतोरज्ञानतेष्टा चैन्निश्चितत्वं तथा न किम् ॥ १८५ ॥ हेत्वाभासेपि तद्भावात्साधारणतया न चेत् । धर्मांतरमिवारूपं हेतो सदपि संमतम् ॥ १८६ ॥