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तत्त्वार्थश्लोकवार्तिके
तिस कारण जो बौद्धने यह कहा था " हेतोत्रिष्वपि रूपेषु निर्णयो येन वर्णितः। असिद्ध विपरीतार्थव्यभिचारिविपक्षतः , अर्थात् असिद्ध दोषकी व्यावृत्ति के लिये हेतुका रूप पक्षवृत्तिपना माना गया है, और विरुद्ध हेत्वाभासको हटानेके लिये सपक्षमें वृत्ति होना माना गया है, तथा व्यभिचारदोष निवारण करनेके लिये विपक्षव्यावृत्तिरूप माना गया है । इस प्रकार तीन हेत्वाभासोंके प्रतिपक्षी होनेसे हेतुका तीन रूपोंमें निर्णय जिस कारणसे वर्णन किया गया है । इस प्रकार कथन करनेवाले उस बौद्धने हेतुका लक्षण निर्दोषरूपसे नहीं निर्णीत किया है । अन्यथा वह बौद्ध मित्रातनयत्व आदि हेत्वाभासोंको नहीं व्यवच्छेद करनेवाले उस त्रैरूप्यको कैसे लक्षण कह देता ! बताओ । भावार्थ-जो लक्ष्यका विशेषण अलक्ष्यसे व्यवच्छेद करानेवाला नहीं है, वह निरर्थक है । उसका बोलना निग्रह करा देवेगा।
ननु च पक्षधर्मत्वे निर्णयश्चाक्षुषत्वादेरसिद्धमपंचस्य प्रतिपक्षत्वेन वर्णितः सपक्षसत्त्वे विरुद्धमपंचप्रतिपक्षत्वेन विपक्षासत्त्वे चानैकांतिकविस्तारमतिपक्षेणेति कथं हेत्वा. भासाव्यवच्छेदि हेतोर्लक्षणं तेनोक्तं येन पारमार्थिकं रूपं ज्ञानमिति चेत् अन्यथानुपपमत्वस्यैव हेतुलक्षणत्वे नाभिधानादिति ब्रूमः । तस्यैवासिद्धविरुद्धानेकांतिकहेत्वाभासप्रतिपक्षत्वसिद्धः।
बौद्ध अपने आग्रहको पुष्ट करते हैं कि शब्द अनित्य है, चक्षु इन्द्रियद्वारा ग्राह्य होनेसे, इस अनुमानमें दिये गये चाक्षुषत्व तथा अन्य असिद्ध हेत्वाभासोंके प्रपंचका प्रतिकूल होनेके कारण हेतुका रूप पक्षवृत्तिपनमें निर्णीत कर कहा गया है। तथा विरुद्धके भेदप्रभेदोंका प्रतिपक्षी होनेसे हेतुका सपक्षसत्त्वपनेमें निर्णय कहा है। तथा व्यभिचारके विस्तारका प्रतिपक्षपनेकरके विपक्ष व्यावृत्तिरूपमें निर्णय बताया है । इस प्रकार तीनों रूपोंमें निर्णय करना हेतुका लक्षण है, जो कि हेत्वाभासोंका पृथग्भाव कर रहा है। फिर जैनोंने यह क्यों कहा था कि बौद्धोंके हेतुका लक्षण हेत्वाभासोंको व्यवच्छेद करनेवाला नहीं है, जिससे कि बौद्धोंके यहां अनुमानद्वारा वास्तविकरूपका ज्ञान होय अथवा हमारा लक्षण तो हेत्वाभासोंका निवारण करदेता है। किन्तु जैनोंका माना गया कौनसा रूप हेत्वाभासोंको हटावेगा? बताओ, जिससे कि जैनोंके यहां अनुमानद्वारा ठीक ठीक वस्तुका ज्ञान होवे । इस प्रकार बौद्धोंके कहनेपर तो हम जैन आत्मगौरवके साथ यह कहते हैं कि अन्यथानुपपत्तिको ही हेतुका निर्दोष लक्षणपने करके कथन है । वह अविनाभाव ही असिद्ध, विरुद्ध, और अनैकान्तिक हेत्वाभासोंका प्रतिपक्षीरूप करके सिद्ध हो चुका है। और भी हेत्वाभास होवें एक ही उन सबका मुख फेर देता है। ___न धन्यथानुपपन्नत्वनियमवचनेऽसिद्धत्वादिसंभवो विरोधात् । न चैकेन सकलमतिपक्षन्यवच्छेदे सिद्धे वर्दर्थ त्रयमभिदधतां तदेकं समर्थ लक्षणं हेतोतिं भवति तदेव त्रिभिः स्वभावैरसिद्धादीनां त्रयाणां व्यवच्छेदकमतस्तानि त्रीणि रूपाणि निश्चितान्यनुक्तानि ।