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________________ तत्त्वार्थचिन्तामणिः भी उक्त तीनों रूपोंसे क्या लाभ है । अर्थात् अविनाभावके विना तीनों रूपोंके होनेपर भी कुछ सार नहीं निकलेगा । वृद्ध पुरुषोंसे ऐसा सुना जा रहा है कि देवागम स्तोत्रको सुनकर. श्रीविद्यानंद स्वामीनें जैनदर्शनका आश्रय ले लिया था। किन्तु हेतुके लक्षणमें उनको शंका रही आई । रात्रिको पद्मावतीदेवीने स्वप्नमें कहा कि श्रीपार्श्वनाथ भगवान्की फणामें हेतुका लक्षण लिखा है । प्रातःकाल स्वामीजीने श्रीपार्श्वनाथ भगवान के दर्शन किये और प्रतिमाजीके ऊपर लगे हुये फनमें इन दो श्लोकोंको देखा “अन्यथानुपपन्नत्वं यत्र तत्र त्रयेण किम् । नान्यथानुपपनत्वं यत्र तत्र त्रयेण किम् ॥१॥ अन्यथानुपपन्नत्वं यत्र किं तत्र पंचभिः। नान्यथानुपपन्नत्वं यत्र किं तत्र पंचभिः ॥२॥ जहां अन्यथानुपपत्ति है, वहां बौद्धोंके माने गये तीन रूपोंसे क्या लाभ और जहां अन्यथानुपपत्ति नहीं है, वहां तीन रूप भले ही रहो तो क्या लाभ है ? तथा जहां अन्यथानुपत्ति है, वहां नैयायिकोंके माने गये सत्प्रतिपक्षरहितपना, और अबाधितपनको उन तीनमें बढाकर पांच रूपोंसे क्या फल निकलेगा ? और जहां अन्यथानुपपत्ति नहीं है, वहां भी पांच रूपोंसे क्या प्रयोजन सधेगा ? भावार्थ-अविनाभाव ही हेतुका प्राण है। यथा चैवमन्यथानुपपन्नत्वनियमे सति हेतोन किंचित्त्रयेण पक्षधर्मत्वादीनामन्यतमेनैव पर्याप्तत्वात्तस्यैवान्यथानुपपनस्वभावसिद्धेरिति च तस्मिस्तत्त्रयस्य हेत्वाभासगतस्येवाकिंचित्करत्वं युक्तं ॥ जिस प्रकार कि ऐसे अन्यथानुपपत्तिरूप नियमके होनेपर हेतुका उन तीन रूपोंसे कुछ भी प्रयोजन नहीं सधता है। क्योंकि पक्षवृत्तित्त्व आदि तीनमेंसे कोई एक विपक्षव्यावृत्तिरूप करके ही पूर्णरूपसे कार्य सध जाता है । और वही रूप अन्यथानुपपत्तिस्वरूप सिद्ध है । इस प्रकार उस हेतुमें उन तीन रूपोंका रहना कुछ भी कार्य करनेवाला नहीं है । यह हम स्याद्वादियोंका कहना युक्ति पूर्ण है। जैसे कि " उदरस्थपुत्र: श्यामो मित्रातनयत्वात् इतरतत्पुत्रवत् " गर्भमें बैठा हुआ पांचवां पुत्र (पक्ष ) श्याम है ( साध्य ) मित्राका लडका होनेसे, जैसे कि मित्राके अन्य चार लडके काले दीख रहे हैं ( दृष्टान्त ) । यहां मित्रातनयत्व नामक हेत्वाभासमें जिस प्रकार तीनरूप होते हुये भी साध्यको नहीं साध सकते हैं । क्योंकि बहिरंगमें साग आदिका भक्षण इसबार नहीं करने और अन्तरंगमें बालकके शुक्लवर्ण प्रकृतिका उदय होनेसे मित्राके गर्भका लडका गोरा है । उसी प्रकार सद्धेतुमें पडे हुये तीनरूप भी अकिंचित्कर हैं। अकेला अविनाभाव ही सद्धेतुका विश्वविधाता है। तद्धेतोस्त्रिषु रूपेषु निर्णयो येन वर्णितः । असिद्धविपरीतार्थव्यभिचारिविपक्षतः ॥ १८१ ॥ तेन कृतं न निर्णीतं हेतोर्लक्षणमञ्जसा । हेत्वाभासाऽव्यवच्छेदि तद्वदेत्कथमन्यथा ॥ १८२ ॥
SR No.090497
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 3
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1953
Total Pages702
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size21 MB
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