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________________ तत्त्वार्यश्लोकवार्तिके . रेकनिश्चयस्य दृष्टत्वात् संदिग्धेन्वये व्यतिरेकसंदेहाचेति न वै मन्तव्यं सर्वे भावाः क्षणिकाः सत्चादित्यस्यान्वयासत्त्वेपि व्यतिरेकनिश्चयस्य स्वयमिष्टेरन्यथा तस्य गमकत्वायोगात् । बौद्ध यदि यों कहें कि निश्चय कर लिया गया व्यतिरेक ही तो हेतुका साध्यके साथ अविनाभाव है, इससे अन्य कोई अविनाभाव नहीं है, और वह अविनामाव अभी अभी दिखलाये गये सम्पूर्ण हेतुओंका अन्वय नहीं सम्भवनेपर तो नहीं सिद्ध होता है। अग्निके होनेपर ही धुआं है, इस प्रकारके अन्वयका निश्चय होनेपर ही अग्निके न होनेपर कहीं भी धूम नहीं रहता है, इस प्रकार के व्यतिरेकका निश्चय होना देखा गया है । तथा अग्निके होनेपर ही धूम होगा या नहीं होगा, इस प्रकार अन्वयके संदिग्ध होनेपर आग्निके न होनेपर कहीं भी धूम न होगा या होगा ऐसा व्यतिरेकका संदेह भी हो रहा है । इस कारण उक्त सत्त्व, श्रावणत्व, शद्वत्व, आदि हेतुओंका अनेकान्तात्मकपना आदिको साधनेमें अन्वय होते हुये ही व्यतिरेक बनना आप जैन स्वीकार करो । आचार्य कहते हैं कि इस प्रकार तो बौद्धोंको कभी नहीं मानना चाहिये । क्योंकि सम्पूर्ण भाव ( पक्ष ) क्षणिक हैं (साध्य ), सत्पना होनेसे ( हेतु)। इस अनुमानके इस सत्त्व हेतुका अन्वय नहीं बननेपर भी व्यतिरेकका निश्चय हो जाना स्वयं बौद्धोंने इष्ट किया है। अन्यथा यानी अन्वयके समान व्यतिरेक भी हायसे निकल जायगा तो उस सत्त्वहेतुको क्षणिकत्वका ज्ञापकपना नहीं बन सकेगा । अतः सद्धेतुका लक्षण अन्वय नहीं बना। नन्वत्र सत्येव क्षणिकत्वे सत्त्वमिति निश्चयमेवान्वयोस्तीति चेत् । अत्रोच्यते बौद्ध अपने मतका पुनः आग्रह करते हैं कि इस हेतुमें क्षणिकत्वके रहनेपर ही सत्त्वहेतुका ठहरना, इस निश्चयको ही हम अन्वय मानते हैं, जो कि अन्वय सत्त्वहेतुमें विद्यमान है। इस प्रकार अवधारणका प्रकरण उपस्थित होनेपर तो यहां श्रीविद्यानंद आचार्य द्वारा यह समाधान कहा जाता है। साध्ये सत्येव सद्भावनिश्चयः साधनस्य यः। सोन्वयश्चेत्तथैवोपपचिः खेष्टा परोऽफलः ॥ १७७ ॥ साध्यके होनेपर ही जो साधनके सद्भावका निश्चय है, वही अन्वय है । इस प्रकार बौद्धोंके कहनेपर तो हम कहते हैं कि तिस प्रकार साध्य के होनेपर ही हेतुकी उपपत्ति होना उन्होंने अपने यहां इष्ट करली है, तब तो ठीक है । इससे न्यारा सपक्षमे वृत्तिरूप अन्वय मानना व्यर्थ है। ___ यथैव प्रतिषेधप्राधान्यादन्यथानुपपचिर्व्यतिरेक इतीष्यते तथा विधिप्राधान्यात्तथोपपत्तिरेवान्वय इति किमनिष्टं स्याद्वादिभिस्तस्य हेतुलक्षणत्वोपगमात् । परोपगतस्तु. नान्धयो हेतुलक्षणं पक्षधर्मत्ववत् ।
SR No.090497
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 3
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1953
Total Pages702
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size21 MB
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