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तत्त्वार्यश्लोकवार्तिके
- तिस कारण एक ही धर्मस्वरूपसे जीवित शरीर आत्मासहित नहीं होगा। क्योंकि कलाओं यानी अंशोंसे रहित हुये आत्माके एक साथ अनेक देशोंमें ठहरनेवाली देहमें विद्यमान रहनेकी हानि हो जावेगी अर्थात् अंशोंसे सहित हो रहे आत्माकरके जीवित शरीर सात्मक है । निरंश आत्मा जब कोई पदार्थ ही नहीं तो भला ऐसे निरंश आत्मासे सहित जीवित शरीर क्यों होने लगा। भावार्थ-जीवितशरीर अपरिणामी एक धर्मवाले आत्मा करके सात्मक नहीं है । सांश आत्माका ही शरीरके भिन्न भिन्न अवयवोंमें नानारूप करके प्रतिभास होता है।
निष्कल: सकृदनेकदेशदेहं व्याप्नोत्यात्मेति कः श्रद्दधीत ? परममहत्त्वाव्यामोत्येवेति चेयाहतमिदं निरंशः परममहान् वेति परमाणोरपि परममहत्त्वप्रसंगात् । यदि पुनः खारंभकावयवाभावानिरवयवत्वमात्मनो गगनत्वादिवदिति मतं तदा परमतसिद्धिः सर्वया निरवयवत्वासिद्धेः परमाणुप्रमीयमाणस्वात्मभूतावयवानामात्मनो प्रतिषेधादिति समर्थयिष्यते।
__अपने अंशोंसे रहित होता हुआ आत्मा, उन मस्तक, पाद, उदर, आदि अनेक देशोंमें ठहरे हुये शरीरको एक ही बार व्याप्त कर लेता है, इस बातका कौन भला मनुष्य श्रद्धान कर सकेगा ! अर्थात् कोई नहीं। यहां वैशेषिक यदि यों कहें कि सबसे बडे परममहत्त्व नामके परिमाणका धारी होनेसे आत्मा अनेक देशमें ठहर रहे देहको व्याप्त कर ही लेता है। इस प्रकार कहनेपर तो हम प्रतिपादन करते हैं कि यह वैशेषिकोंका कहना पूर्व अपरमें व्याघातदोषसे युक्त है। जो अंशोंसे रहित है, वह सबसे बडे परिमाणवाला है, यह कह नहीं सकते हो । जो निरंश है, वह परम-महापरिमाणवाला नहीं है, और जो महापरिमाणवाला पदार्थ है, वह अंशोंसे रहित नहीं है । वैशेषिकोंका माना हुआ, आत्मा ऊर्ध्वलोक, अधोलोक, विदेहक्षेत्र, भरत, समुद्र, बम्बई, पंजाब, बंगाल, आदि स्थलोंको न्यारे न्यारे अंशोंसे ही व्याप सकेगा । अन्यथा यानी अंशरहित ही पदार्थ सब देशोंमें व्याप जावे तब तो अंशरहित परमाणुको भी परममहापरिमाणवालेपनका प्रसंग हो जावेगा। ऐसी दशा होनेपर परमाणु भी अनेक देशोंमें ठहर जावेगा । यदि फिर वैशेषिकोंका यह मन्तव्य होय कि अपने बनानेवाले अवयवोंका अभाव हो जानेसे आत्माका अवयवरहितपना है, जैसे कि आकाशको बनानेवाले कोई छोटे अवयव नहीं हैं। अतः आकाश निरवय माना गया है। या आकाशत्वरूप सखण्डोपाधिका कोई आरम्भक अवयव नहीं है । न्यारे न्यारे अनेक व्यक्ति उसके आश्रय नहीं हैं । अतः आकाशत्व धर्म अवयवोंसे रहित है । वैशेषिकोंका ऐसा विचार होगा । तब तो दूसरे सिद्धान्त यानी स्याद्वाद मतकी सिद्धि हो जावेगी, क्योंकि आत्माका सभी प्रकारोंसे अवयवरहितपना सिद्ध नहीं हुआ। परमाणुके बराबर नाप लिये गये और निजके आत्मभूत हो रहे अवयवों ( प्रदेशों) का आत्माके कोई निषेध नहीं हैं । भावार्थ-घट, पट, आदिको बनानेवाले कपाल, तंतु, आदि अवयवोंके समान