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तत्यार्थचिन्तामणिः
. बौद्ध कहते हैं कि सम्वेदनमें स्वयं जानने योग्य वेद्य आकार और स्वयं जाननेवाला वेदक आकर ये दोनों नहीं हैं। क्योंकि उन आकारोंका स्वयं प्रतिमास नहीं हो रहा है । ग्रन्थकार कहते हैं कि यह तो नहीं कह सकते हो । क्योंकि जगत्में नहीं प्रतिभास रहे पदार्थीका सद्भाव कहना विरुद्ध है । तिस कारण कहीं भी शुद्धसंवेदनमें किसी वेद्य आकार या वेदकआकारका भी यदि अपने प्रतिभासना आदि कार्योंके अभाव होनेसे अभाव साधा जायगा तब तो भस्म, डेल, ताला, घडी, आदिमें चैतन्यका अभाव भी अपने निजी कार्योकी निवृत्ति होनेका निश्चय हो जानेसे निश्चित करलेना चाहिये । इस प्रकार सभी जीवित शरीर ( पक्ष ) आत्मासहित हैं ( साध्य )। प्राण आदि करके विशिष्ट होनेसे । इस अनुमानमें पडे हुये प्राणादिमत्त्व हेतुका डेल आदि विपक्ष में प्राण आदिकी सत्ताके बाध करनेवाले प्रमाणसे ही व्यतिरेक साधा जाता है । फिर केवल किसके नहीं दीखने मात्रसे ही किसीका हम अभाव नहीं कह देते हैं, जिससे कि बुद्धके राग आदिको साधनेमें वक्तापन, पुरुषपन आदि हेतुओंके समान प्राणादिमत्त्वका हेतुपना संदिग्ध हो जाय अर्थात् केवल नहीं दीखनेसे जैसे परमाणु, पिशाच, पुण्य, पाप, आदिका अभाव नहीं साध दिया जाता है, वैसे ही आत्माका अभाव हमने नहीं साधा है। किन्तु दृढ बाधकप्रमाणसे भूतल आदिमें घर्ट आदिकका अभाव साधा जाता है । इसमें कोई संदेह नहीं रहता। इसी प्रकार भस्म आदि व्यतिरेक दृष्टान्तमें प्राणादि हेतु और आत्मपना साध्यका अभाव प्रमाणित किया गया है। ग्रन्थकार अब साध्यभूत सात्मकत्वके आत्माको परिणामी माने गयेपनका सूचन करें देते हैं, जो कि " निःशेष सात्मकं " इस वार्तिकमें कहा जा चुका है।
न चैवमपरिणामिनात्मना सात्मकं जीवच्छरीरस्य सिद्ध्यति । यतः
इस प्रकार जीवितशरीरको नहीं परिणमन करनेवाले आत्मासे सात्मकपना नैयायिकोंके अनुसार नहीं सिद्ध होता है । अर्थात् उत्पाद, व्यय, ध्रौव्यरूप परिणाम कर रहे आत्मासे सहित जीवित शरीर है । जिस कारणसे कि--. .
परिणामिनमात्मानमंतरेण क्रमाक्रमौ । . ...न स्यातां तदभावे च न प्राणादिक्रिया कचित् ॥ १७२॥ के आत्माको परिणामी माने विना क्रम और अक्रम नहीं हो सकेंगे तथा उन क्रम और युगपत्पनाके अभाव हो जानेपर तो प्राण, चेष्टा, सुख, दुःख, सम्वेदन, आदि क्रियायें कहीं भी आत्मामें नहीं बन सकेंगी।
तन्नकांतात्मना जीवच्छरीरं सात्मकं भवेत् । निष्कलस्य सहानेकदेशदेहास्तिहानितः ॥ १७३ ॥