________________
३०२
तत्त्वार्थचोकवार्तिके
माभूत्संतानान्तरसिद्धिस्तथेष्टेरिति चेन्न, निजसंतानस्याप्यसिद्धिप्रसंगात् ।।
वैभाषिक बौद्ध कहते हैं कि जिनदत्तके पूर्व अपर होनेवाले क्षणिक, निरन्वय, परिणामोंकी लडीरूप संतान और देवदत्तके आगे पीछे कालमें होनेवाले क्षणिक संतानियोंकी एकमालारूप संतान, इसी प्रकार अन्य भी इन्द्रदत्त, महावीरप्रसाद आदिकी अन्य न्यारी न्यारी संतानोंकी सिद्धि भले ही मत होवे, तिस प्रकार हमको स्वयं इष्ट है। आचार्य कहते हैं कि यह तो न कहना। क्योंकि यों तो बौद्धोंके यहां अपने निजके पूर्व अपरकालमें वर्त्तनेवाले परिणामोंकी एक संतान बननेकी असिद्धिका प्रसंग होगा, यानी अपनी निजकी सन्तान भी नहीं सध सकेगी।
. वर्तमानचित्तक्षणे संवेद्यमाने पूर्वोत्तरचित्तक्षणानामनुभवमात्रमप्यकुर्वतां प्रतिषेध्दु मशक्यत्वादेकचित्तक्षणात्मकत्वापत्तेः । न चैकः क्षणः संतानो नाम । __वर्तमान कालके एक चित्तक्षणका संवेदन किया गया माननेपर अन्य भूत और भविष्यकालमें हो गये या होनेवाले चित्तक्षणोंका निषेध करनेके लिये अशक्यता है । भले ही वे अपना केवल अनुभव भी नहीं करा रहे हों । फिर भी बौद्धोंके विचार अनुसार उनका गुप्त सद्भाव माना जा सकता है । ऐसी दशामें पहिले पीछे कालोंके सभी विज्ञानरूप चित्तक्षणोंको वर्तमानकालके एक चित्तक्षणखरूप हो जानेका प्रसंग आवेगा । किन्तु एक ही क्षणका क्षणिक परिणाम तो संतान नहीं बन सकता है । एक दानेकी माला या एक ही सिपाहीकी सेना अथवा एक ही वृक्षका वन तो नहीं देखा गया है । तथा भूतभविष्यके परिणाम यदि वर्तमानकालमें उपस्थित रहेंगे, तब तो क्षणिकपनका विघात हुआ । अर्थात् जिनदत्त इन्द्रदत्त आदिकी सन्ताने महीं मानी जायगी, और अपनी भी सन्तान नहीं मानी जायगी, तब तो अपना एक ही वर्तमानक्षणका परिणाम ठहरा जो कि कथमपि सन्तान नहीं हो सकता है । भूतभविष्यके विना वर्तमान कोई पदार्थ नहीं है।
तत एव संवेदनाद्वैतमस्तु उत्तमं ज्ञानाद्वयमिति वचनात् । नेदमपि सिद्धयति वेद्यवेदकाकारविवेकस्याव्यवस्थानात् ।
शुद्ध विज्ञानाद्वैतवादी कहते हैं कि तिस ही कारण सम्वेदनका केवल अद्वैत हो जाओ। अपने और परके अन्य संतान या संतानियोंके टंटे मिट गये, अच्छा ही हुआ। हमारे ग्रन्थोंमें कहा है कि अन्तमें जाकर संवेदनका अद्वय ही उत्तम है। किन्तु यह भी बौद्धोंका कहना सिद्ध नहीं होता है। क्योंकि वेद्य आकार और ज्ञानके वेदकआकारोंका पृथग्भाव नहीं व्यवस्थित हो पाता है।
संवेदने वेद्यवेदकाकारो न स्तः स्वयमप्रतिभासनादिति न शक्यं वक्तुमप्रतिभास मानयोः सत्त्वविरोधात् । ततः कचित्कस्यचित्पतिभासनादेः स्वकार्यस्याभावादभावसाधने भस्मादौ चैतन्यस्य स्वकार्यनिवृत्तिनिश्चयादभावो निश्चेतव्य इति विपक्षे बाधकप्रमाणादेव प्राणादिमत्त्वस्य व्यतिरेका साध्यते न पुनरदर्शनमात्रेण यतः संशयहेतुत्वं रागादौ वकृत्वादेरिव स्यात् ।