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तत्त्वार्याचन्तामणिः
२८७ यथैवास्तित्वनास्तित्वे भिद्यते गुणमुख्यतः। तथोभयं क्रमेणेष्टमक्रमेणत्ववाच्यता ।। ४४७॥ अवक्तव्योत्तराशेषास्त्रयो भंगाश्च तत्त्वतः। सप्त चैवं स्थिते च स्युस्तद्वशाः सप्तहेतवः ॥ १४८॥
जिस ही प्रकार अस्तिपना और नास्तिपना ये दो धर्म गौण और मुख्यरूपसे न्यारे न्यारे हो रहे हैं । इस ही प्रकार क्रमसे कथन करनेपर अस्तित्व और नास्तित्वका मिलकर उभयनामका तीसरा भंग इष्ट किया गया है । तथा क्रमसे रहित दोनों धर्मोकी युगपत् यानी एक ही कालमें विवक्षा होनेपर तो अवक्तव्यपना चौथा धर्म माना गया है। अनेक धर्मोको एक ही समयमें कहनेकी एक शब्दकी शक्ति नहीं है । इन कहे हुये चार धर्मोसे अवशेष रहे अस्ति अवक्तव्य ५ नास्ति अवक्तव्य ६ अस्तिनास्तिअवक्तव्य ७ ये पृष्ठ भागमें अवक्तव्यपदको धारण किये हुये तीन भंग भी वास्तविक रूपसे माने हैं। इस प्रकार सात भंगोंके स्थित हो जानेपर उन सात मंगोंके अधीन होकर प्रवर्त्तनेवाले सात हेतु होने चाहिये । भावार्थ-अर्थोके स्वभावोंकी विशेषता करि यदि हेतुओंके भेद करना बौद्धोंको अभीष्ट है अथवा विधि और निषेधके भेदसे हेतुभेद करना इष्ट है, तब तो सप्तभंगीके अनुसार हेतु सात प्रकारके मानने चाहिये । इनमें सब हेतु गर्मित हो जायेंगे । अच्छा हो यदि नयवादके समान हेतुकी संख्या नियत कर दी जाय ।
विरोधानोभयात्मादिरर्थश्चेन्न तथेक्षणात् ।
अन्यथैवाव्यवस्थानात्प्रत्यक्षादिविरोधतः ॥ १४९ ॥ निराकृतनिषेधो हि विधिः सर्वात्मदोषभाक् । निर्विधिश्च निषेधः स्यात्सर्वथा स्वव्यथाकरः ॥ १५० ॥
बौद्ध यदि यों कहें कि उभौ अवयवौ यस्य तत् उभय, दो अवयववाले एक अर्थको उभय कहते हैं । अस्ति और नास्ति इन दो धर्मोका परस्परमें विरोध होनेके कारण दोंनोंकी खिचडी बनकर एक आत्मक होता हुआ तीसरा धर्म नहीं बन सकता है । तथा पांचवां आदिक भंग बनना भी विरुद्ध है । अतः उभयस्वरूप या अस्तिअवक्तव्यस्वरूप कोई पदार्थ नहीं है। क्या कोई पदार्थ शीत और उष्ण स्पर्शको धारण करता हुआ एक ही समयमें अग्निजलस्वरूप है ! यानी नहीं है। आचार्य कहते हैं कि इस प्रकार तो बौद्धोंको नहीं कहना चाहिये । क्योंकि हम क्या करें तिस प्रकार अनेक धर्मोंसे तदात्मक हो रहे पदार्थोका दर्शन हो रहा है। चन्द्रकान्तमणिके सनिधान होनेपर अग्नि भी शीतल हो जाती है । मंत्रतंत्रके निमित्तसे या हिम ( बर्फ ) से चारों