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वाखार्थ सोकसातिक
ओर घिर जानेपर अग्निकी उष्णता छिप जाती है । विष भी प्रक्रियाओं के द्वारा अमृत बना लिये जाते हैं । तीन रोगोंपर प्रयुक्त किये गये शुद्ध विष ही चमत्कार दिखलाते हैं। जिस रसायनकी मात्रा एक चावलभर है, उसको एक रत्ती देदेनेपर रोगी मर जाता है । इसी प्रकार स्वद्रव्य, क्षेत्र, काल, भावकी अपेक्षासे पदार्थ अस्तित्व-आत्मक है। तभी तो वह स्वरूपलाम करता हुआ अर्थ क्रियाओंको बना रहा है । और परचतुष्टयकी अपेक्षा पदार्थ अन्योंसे नास्तित्वरूप है। तभी तो अन्य पदार्थोके साथ सांकर्य नहीं हो रहा है । हां, दूसरे ही प्रकारोंसे एकान्तवादियोंके अनुसार पदार्थकी व्यवस्था होती हुई नहीं देखी जाती है। ब्रह्माद्वैतवादियोंके माने हुये अस्तित्व एकान्तके अनुसार केवल विधिको ही मानने में प्रत्यक्ष आदि प्रमाणोंसे विरोध आता है । तथा शून्य वादियोंके नास्तिपन माननेके एकाम्तमें भी प्रमाणोंसे विरोध आता है। क्योंकि सभी पदार्थ स्वांशोंकी विधि और परांशका निषेध लिये हुये बैठे हैं । निषेधोंका सभी प्रकार निराकरण करती हुई। विधि तो सर्व पदार्थस्वरूप हो जानेके दोषको धारण करती है । भावार्थ-जिस किसी एककी ओरसे भी यदि पदार्थमें निषेध नहीं प्राप्त होगा उसी समय वह पदार्थ तद्रूप बन जायगा । एक घोडेमें हाथी, ऊंट, बैल, भैंसा, देव, नारकी, मनुष्य, घट, पट, आदि अनंत पदार्थोकी ओरसे अभाव विद्यमान हैं। यदि घोडेमें एक भी मैंसका अभाव आना रुक गया तो उसी समय घोडा झट भैंसरूप हो जायगा । इसी प्रकार अभावको नहीं माननेपर कोई भी पदार्थ चाहे जिस किसी अन्यपदार्थरूप बन बैठेगा, कोई रोकनेवाला नहीं है । तथा विधिसे सर्वथा रहित यदि निषेधका एकान्त माना जायगा तो भी सभी प्रकार अपनी व्यथाको करनेवाला है अर्थात् सबका निषेध माननेपर इष्टपदार्थका जीवन अशक्य है । एकान्तरूपसे निषेधको कहनेवाले विद्वान् अपनी सत्ता भी जगत्में नहीं स्थिर कर सकेंगे । अतः वस्तुको अनेक धर्म आत्मक माननेपर सात भंगोंके अनुसार सात प्रकारके हेतु मान लेने चाहिये।
ननु च यथा भावाभावोभयाश्रितस्त्रिविधो धर्मः शब्दविषयोनादिवासनोद्भूतविकल्पपरिनिष्ठित एव न बहिः स्वलक्षणात्मकस्तथा स्यादवक्तव्यादि परमार्थवो सन्नेवार्थक्रियारहितत्वान्मनोराज्यादिवत् न च सर्वथा कल्पितीर्थो मानविषयो नाम येन तद्भेदात्सप्तविधो हेतुरापाद्यते इत्यत्रोच्यते
जैनोंको आमंत्रण कर बौद्ध कह रहे हैं कि शद्वके द्वारा भाव, अभाव और उभयका आश्रय लेकर उत्पन्न हुये तीन प्रकारके धर्म जिस प्रकार अनादिकालसे चली आ रही. मिथ्यावासनासे उत्पन हुये विकल्पज्ञानमें कोरे स्थित हो रहे ही शब्दके वाध्य अर्थ बन रहे हैं, किन्तु वे तीनों धर्म वस्तुतः बहिरंगस्वलक्षण स्वरूप नहीं हैं। लडकियोंके खेल समान केवल कल्पित हैं । तिस ही प्रकार कथंचित् अवक्तव्य आदि चार धर्म भी परमार्थरूपसे विद्यमान नहीं हैं। क्योंकि अर्थक्रिया करनेसे रहित हैं, जैसे कि दरिद्रोंका अपने मनमें ही राजा बनजाना वस्तुभूत नहीं । खेलमें बना लिये गये