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वल्वापसोकवार्तिके
बावडीका तुल्यपरिमाणपना संबंध है । क्षायिकसम्यक्त्व, केवलज्ञान, केवलदर्शन, यथाख्यात चारित्रका उत्कृष्ट अनंतप्रमाणपनाभाव संबंध है । कानेका काने पुरुषके साथ सदृशाकारत्व संबंध है । ये सर्वत्र हो रहे कार्यकारणभाव, संयोग आदिरूप संबंध होते हुए भी अविनाभावसे रहित नहीं दीख रहे हैं, यह नहीं समझना, अर्थात् संबंधोंमें अनेक संबंध तो अविनाभावसे रहित हैं । तिस कारण संबंधके वशसे भी समान्यरूप करके अन्यथानुपपत्ति ही एक वह हेतुका लक्षण है। इस कारण एक ही हेतु महर्षिओंकी सम्प्रदायके अनुसार मानना चाहिये ।
विशेषतोपि संबंधद्वयस्य तादात्म्यतज्जन्माख्यस्याव्यवस्थानात् संयोगादिसंबंधषट वत्तदव्यवस्थाने च कुतो लिंगेयचा नियम इति तद्विशेषविवक्षायामपि न परिष्टा लिंगसंख्यावतिष्ठते विशेषाणां बहुत्वात् । परेष्टसंबंधसंख्यामतिकामंतो हि संबंधविशेषास्त दिष्टलिंगसंख्यां विघटयंत्येव खेष्टविशेषयोः शेषविशेषाणामंतर्भावयितुमशक्तेः । विष. यस्य विधिप्रतिषेधरूपस्य भेदालिंगभेदस्थितिरित्यपीष्टं तत्संख्याविरोध्येव ।
विशेषरूपसे भी तादात्म्य और तदुत्पत्ति नामके दो संबंधोंकी व्यवस्था नहीं है। जैसे कि संयोग आदिक छह संबंधोंकी ज्ञापक हेतुके प्रकरणमें संख्या व्यवस्थित नहीं है और उन दो, छह आदि हेतु भेदोंकी व्यवस्था नहीं होनेपर तो ऐसी दशामें हेतुओंकी इतनी संख्याके परिमाणको अवधारण करनेपनका नियम कैसे सधा ! इस प्रकार हेतुओंके विशेषोंकी विवक्षा होनेपर भी दूसरे प्रतिवादियोंद्वारा इष्ट की गई हेतुसंख्या नहीं निर्णीत हो पाती है। क्योंकि व्याप्यको, व्यापकको पूर्वचरको, विरुद्धव्याप्यको, विरुद्धपूर्वचरको, व्याप्यव्याप्यविरुद्धों आदिको साधनेवाले हेतुओंके विशेष बहुतसे हैं । जब कि वे विशेषसंबंध दूसरे प्रतिवादियोंसे इष्ट की गई हेतुसंख्याका अतिक्रमण कर रहे हैं, तो उनके द्वारा अभीष्ट हेतुसंख्याक नियमका विघटन करा ही देते हैं । क्योंकि अपने इष्ट किये गये दो तादात्म्य और तदुत्पत्तिरूप विशेषोंमें अवशिष्ट बचे हुये पूर्वचर आदि हेतुओंके विशेष भेदप्रभेदोंका अंतर्भाव नहीं किया जा सकता है । यदि कोई जैनका एकदेशी वादी साध्यरूप विषयके विधि और निषेधरूपको साधनेवाले भेदसे हेतुके विधिसाधक और निषेधसाधक इन दो भेदोंकी व्यवस्था मानेंगे । इस प्रकारका इष्ट करना भी उस बौद्धकी तादात्म्य तदुत्पत्तिरूप दो संख्याका विरोधी ही है । अर्थात् विधिसाधक या निषेधसाधक यह दो संख्या तो ठीक है । किन्तु. तादात्म्य और तदुत्पत्ति ये दो भेद तो ठीक नहीं हैं । अथवा हेतुकी प्रमाण सिद्ध हो रही संख्याक विरोधी जैसे तादात्म्य तदुत्पत्ति हैं, वैसे ही विधिसाधक, निषेधसाधक ये दो भेद भी हैं। तथा धर्मकी अपेक्षा विचारा जाय तो अन्य भी हेतु हैं।
यस्मात्जिस कारणसे कि सप्तभंगीके विषयभूत धर्मोको साधनेवाले सात प्रकारके हेतु बन रहे हैं।