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तत्वार्थ लोकवार्तिके
सानुमा सोपमाना च सार्थापत्त्यादिकेत्यपि । संवादकत्वतस्तस्याः संज्ञानत्वाविरोधतः ॥ २० ॥
मतिज्ञान के सभी भेद प्रभेदोंका यहां मतिसे ग्रहण हो जाता है, इस कारण स्मृति, तर्क, प्रत्यभिज्ञान आदिको ज्ञानपना जान लिया जाता है । उससे इन्द्रियोंसे उत्पन्न हुआ ज्ञान ही एक मतिज्ञान है, ऐसे चार्वाकके सिद्धान्तका निवारण कर दिया गया समझो तथा अनुमानसहित इन्द्रियजाता हो जन्य ज्ञान ( प्रत्यक्ष ) ये दो ही मतिज्ञान हैं, यह वैशेषिक या बौद्धोंका मत भी दूर है । अनुमान और उपमान सहित होती हुई इन्द्रियजन्य मति ही प्रमाण है । अनुमान, उपमान, अर्थापत्ति, शाद, अभाव, संभव, ऐतिह्य, आदि से सहित होती हुई इन्द्रियमतिप्रमाण हैं । इस प्रकार तीन, चार, पांच, आदि प्रमाणोंके माननेवाले कपिल, नैयायिक, आदिकोंका मन्तव्य भी निवारित हो जाता है । क्योंकि इनमेंसे किसीने भी स्मृति या तर्कज्ञानको प्रमाण नहीं माना है । किन्तु सफलप्रवृत्तिका जनकपना रूप सम्वादकपनेसे उन स्मृति आदिकको भी समीचीन ज्ञानपने का कोई विरोध नहीं है । जैन सिद्धान्त के अनुसार मतिके पेटमें इन्द्रियजन्य बुद्धियां स्मृति, व्याप्तिज्ञान, उपमान, वैसादृश्य ज्ञान, अर्थापत्ति, आदि सब समा जाते हैं ।
अक्षमतिरेवैका सम्यग्ज्ञानमगौणत्वात् प्रमाणस्य नानुमानादि ततोर्थनिश्चयस्य दुर्लभत्वादिति केषांचिद्दर्शनं । सानुमानसहिता सम्यग्ज्ञानं स्वलक्षणसामान्ययोः प्रत्यक्षपरोक्षयोरर्थयोः प्रत्यक्षानुमानाभ्यामवगमात् ताभ्यां तत्परिच्छित्तौ प्रवृत्तौ प्राप्तौ च विसंवादाभावादित्यन्येषां । सैवानुमानोपमान सहिता सम्यग्ज्ञानं, उपमानाभावे तथा चात्र धूम इत्युपनयस्यानुपपत्तेरिति परेषां । सैवानुमानोपमानार्थापत्त्यभावसहितागमसहिता च सम्यग्ज्ञानं तदन्यतमापायेर्थापरिसमाप्तेरितीतरेषां । तन्मतिमात्रग्रहणादपसारितं ।
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स्पर्शन आदि इन्द्रियोंसे उत्पन्न हुआ मतिज्ञान ही एक सम्यग्ज्ञान है । क्योंकि प्रमाण गौणसे रहित होता है । संसार में प्रमाण ही तो न्यायाधीशके समान प्रधान है । अनुमान, स्मृति, 1 आदिक तो प्रत्यक्षकी सहायता चाहते हैं । अतः गौण होनेसे प्रमाण नहीं हैं । तथा उन अनुमान आदिकसे अर्थका निश्चय होना दुर्लभ है । इस प्रकार किन्हीं बृहस्पति मतके अनुयायियोंका चार्वाक दर्शन है । तथा वह इन्द्रिय प्रत्यक्ष तो अनुमानसहित होता हुआ सम्यग्ज्ञान है । यानी प्रत्यक्ष और अनुमान दो प्रमाण हैं । स्वलक्षण तो प्रत्यक्षसे ज्ञेयरूप अर्थ है और सामान्य परोक्षरूप अर्थ है । प्रमेय विषयके भेद से प्रमाणोंका भेद होना माना गया है । स्वलक्षणरूप प्रत्यक्ष योग्य विषयकी तो प्रत्यक्षप्रमाणसे इप्ति हो जाती है । और सामान्यरूप परोक्ष विषयकी अनुमान प्रमाणसेज्ञप्ति हो जाती है। ज्ञान द्वारा जिसको जाना जाय उसीमें प्रवृत्ति की जाय और उस ही विषयकी प्राप्ति होवे, उस ज्ञानको सम्वादी कहते हैं । जाना जाय किसीको, प्रवृत्ति होय अन्यमें