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तत्त्वार्थचिन्तामाणः
तथा तीसरा विषय हाथ लगे यह विसम्वाद है । उन प्रत्यक्ष और अनुमान प्रमाणोंसे उन स्वलक्षण और सामान्य विषयोंकी ज्ञप्ति, प्रवृत्ति और प्राप्ति करनेमें विसम्बाद नहीं हो रहा है। इस प्रकार अन्य विद्वान् बौद्धोंका मत है । अनुमान प्रमाण और उपमान प्रमाणसे सहित वह इन्द्रिय मति ही सम्यग्ज्ञान हैं। क्योंकि बौद्धोंके सदृश यदि हम भी उपमानको न मानेंगे तो उस प्रकार ' वह्निके साथ व्याप्ति रखनेवाला वैसा ही धूम यहां हैं ' इस उपनय वाक्यकी सिद्धि न हो सकेगी। अतः अनुमानके पांच अवयवों से उपनयके बिगड जानेपर भला अनुमान प्रमाण कैसे स्थित रह सकेगा ? इस कारण तीनको प्रमाण मानना चाहिये । यह अन्य लोगोंका मत है। आगमको मिलाकर चार ही प्रमाणोंको माननेवाले नैयायिक हैं। तथा अनुमान, उपमान, अर्थापत्ति और अभावोंसे सहित हुई और आगमसे भी सहित हुई वह अक्षमति ( प्रत्यक्ष ) ही सम्यग्ज्ञान है । क्योंकि इन उक्त प्रमाणोंमेंसे एकके भी अभाव हो जानेपर ज्ञान होनारूप प्रयोजनकी परिपूर्णता नहीं होने पाती है । इस प्रकार इतर ( उक्तोंसे न्यारे ) मीमांसकोंका सिद्धान्त है। वे सब अन्य मतियोंके दर्शन सम्पूर्ण ( उन ) मतिज्ञानोंके ग्रहण करनेसे दूर कर दिये जाते हैं। जिसमें कि प्रमाणतारूपसे स्मृति और तर्क प्रविष्ट हो रहे हैं।
ततः स्मृत्यादीनां सम्यग्ज्ञानतावगमात् तथावधारणाविरोधात् । न च तासां प्रमाणत्वं विरुद्धं संवादकत्वाद् । दृष्टप्रमाणाद्गृहीतग्रहणादप्रमाणत्वमिति चेन्न, इष्टप्रमाणस्याप्यप्रमाणत्वासंगादिति चेतयिष्यमाणत्वात् ।
तिस कारण स्मृति, तर्क, आदिकोंको सम्यग्ज्ञानपनेका निर्णय हो जानेसे तिस प्रकार दोनों ओरके अवधारणोंका कोई विरोध नहीं आता है। उन स्मृति, आदिकोंको प्रमाणपना विरुद्ध नहीं है। क्योंकि स्मृति आदिक ज्ञान सम्वाद करानेवाले हैं । जैसे कि प्रत्यक्षज्ञान । यदि यहां कोई यों कहें कि प्रत्यक्ष प्रमाणके द्वारा ग्रहीत किये गये विषयका ग्रहण करनेवाले होनेसे स्मृति, तर्क, आदिको प्रमाणपना नहीं है, आचार्य कहते हैं कि यह तो न कहना । क्योंकि यों तो अपने अपने इष्ट प्रमाणोंको भी अप्रमाणपनेका प्रसंग होगा, इस बातको भविष्य प्रन्थमें भेले प्रकार चेता दिया जायगा । भावार्थ-चार्वाकोंके यहां अन्य गुरु, माता, पिता या दूर देशवर्ती ममुष्योंके भूत, भविष्यत् , वर्तमानकालके प्रत्यक्षोंमें प्रमाणपना अगौणत्व हेतु द्वारा अनुमानसे ही आसकेगा, स्वयं बृहस्पतिके भूत भविष्यत् प्रत्यक्षोंको प्रमाणपन सिद्ध करनेमें अनुमानकी शरण लेनी पडेगी, अनुमान तो व्याप्ति ज्ञानसे ग्रहीत किये गये विषयोंमें ही प्रवर्तती है । इस प्रकार चार्वाकोंके इष्ट प्रत्यक्षमें कथंचित् गृहीतको ग्रहण करनेवालापन होनेसे प्रमाणपना न आसकेगा । बौद्ध, नैयायिक, आदि द्वारा इष्ट किये गये अनुमान, आगम, आदि ज्ञानोंमें तो कथंचित् गृहीतका ग्राहकपना है ही। अतः सर्वथा अगृहीतको ही जानना इनमें नहीं रहा । हां, कुछ गृहीत कुछ अगृहीतको