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तत्वार्थचिन्तामणिः
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लेना चाहिये । इसके उत्तरमें आचार्य कहते हैं कि वे दोनों ही अवधारण विरोध न होनेके कारण हमको अभीष्ट हैं । इसी बातको वार्तिकद्वारा कहते हैं ।
मत्यादीन्येव संज्ञानमिति पूर्वावधारणात् । मत्यज्ञानादिषु ध्वस्तसम्यग्ज्ञानत्वमूह्यते ॥ १७ ॥ संज्ञानमेव तानीति परस्मादवधारणात् ।
तेषामज्ञानतापास्ता मिथ्यात्वोदयसंसृता ॥ १८॥
मति, श्रुत, आदिक पांचों ही समीचीन ज्ञान हैं। इस प्रकार पूर्वके अवधारणसे कुमति, कुश्रुत और विभंगमें सम्यग्ज्ञानपन नष्ट कर दिया गया। विचार लिया जाता जाता है तथा वे मति आदिक सम्यग्ज्ञान ही हैं । इस प्रकार पिछले अवधारणसे मिथ्यात्व कर्मके उदय करके संसरण करती हुई अज्ञानता उनमें से दूर करदी गयी समझ लेना चाहिये । भावार्थ-चौथेसे लेकर बारहवें गुणस्थानतक संभवनेवाले मति, श्रुत, अवधि और छठेसे लेकर बारहवेतक सम्भवते मनःपर्यय तथा तेरहें, चौदहवें और सिद्ध अवस्था में अवश्य पाये जा रहे, केवलज्ञान इन पांचोंको ही सम्यग्ज्ञानपना है। पहले और दूसरे गुणस्थानके कुमति, कुश्रुत, विभंगको और तीसरे गुणस्थानके मिश्रज्ञानोंको समीचीन ज्ञानपना नहीं है, तथा वे मति आदि पांचों सम्यग्ज्ञान नहीं हैं, अज्ञान या कुज्ञानरूप नहीं है।
न ह्यत्र पूर्वापरावधारणयोरन्योन्यं विरोधोस्त्येकतरव्यवच्छेदस्यान्यतरेणानपहरणात नापि तयोरन्यतरस्य वैयर्थ्यमेकतरसाध्यव्यवच्छेदस्यान्यतरेणासाध्यत्वादित्यविरोध एव ।
इस सूत्रके " देवनारकाणामुपपादः " के समान पूर्व अवधारण और उत्तर अवधारणोंका परस्परमें विरोध नहीं है । क्योंकि दोनोंमें से एकद्वारा व्यवच्छेदको प्राप्त हुये का शेष दूसरे करके दूरीकरण नहीं होता है । इस ही कारण इन दोनोंमेंसे किसी एक अवधारणका व्यर्थपना भी नहीं है । क्योंकि दोनोंमेंसे किसी एकके द्वारा साधा गया व्यवच्छेद होनारूप कार्य शेष दूसरे एक करके असाध्य है । इस प्रकार दोनों एवकारोंमें परस्पर अविरोध ही रहा । देवनारकियोंके ही उपपाद जन्म होता है । और उपपाद जन्म ही देवनारकिओंके होता है। यहां भी विरोध नहीं ।
किं पुनरत्र मतिग्रहणात् सूत्रकारेण कृतमित्याह
इस सूत्रमें मति शब्दके ग्रहण करनेसे सूत्रकारने फिर क्या किया है, इस प्रकार जिज्ञासा होनेपर विद्यानंद आचार्य समाधानको स्पष्ट कहते हैं।
मतिमात्रग्रहादत्र स्मृत्यादेखनता गतिः। तेनाक्षमतिरेवैका ज्ञानमित्यपसारितम् ॥ १९ ॥