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तत्वार्थ लोकवार्तिक
अथ मतं ताभ्यां संबंधी व्याप्तस्तेनान्यथानुपपन्नत्वमिति । तदप्यविचारितमेव, तद्वयतिरिक्तस्य संयोगादेः संबंधस्य सद्भावात् । कार्यकारणभावयोरसंयोगादिरूपकार्योपकारकभावमंतरेण कचिदप्यभावादिति चेन्न, नित्यद्रव्यसंयोगादेस्तदंतरेणैव भावात् । न च नित्यद्रव्यं न संभवेत् क्षणिकपरिणामवत्तस्य प्रमाणसिद्धत्वात् तदवश्यं सर्वसंबंधव्यक्तीनां व्यापकस्तदुत्पत्ति तादात्म्याभ्यामन्य एवाभिधातव्यो योग्यतालक्षण इत्याह :
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अब यदि बौद्धोंका यह मन्तव्य होय कि उन तादात्म्य और तदुत्पत्तिरूप व्यापकों से संबंध व्याप्त हो रहा है, और संबंधरूप व्यापकसे अन्यथानुपपन्नपना व्याप्त है, आचार्य कहते हैं कि वह मन्तव्य भी विचार किया गया नहीं। क्योंकि उन तादात्म्य और तदुत्पत्तिसे सर्वथा न्यारे हो रहे संयोग, समवाय, सहचर, विरुद्ध, कारण, व्याप्य, व्यापक विरुद्धता, आदि अनेक संबंध विद्यमान हैं। अविनाभाव घटित हो जानेसे उक्त संबंध साध्यके ज्ञापक हो जाते हैं। नियमरहित होते हुये उक्त संबंध अनुमान कराने में सहायक नहीं हो सकते हैं। यदि बौद्ध यों कहें कि संयोग, समवाय, आदि संबंध भी पहिले असंयोगी और असमवायीरूप कार्योंके उपकारकपनके विना कहीं भी नहीं पाये जाते हैं । अर्थात् संयोग, समवाय भी कारणोंसे किये गये हैं । अतः वे कार्यहेतुमें ही गर्भित हो जायेंगे । ग्रन्थकार कहते हैं कि यह तो न कहना। क्योंकि आकाश, आत्मा, कालाणु, आदि नित्य द्रव्योंके नित्यसंयोग तथा धर्मद्रव्यका अपने परिमाणके साथ और कालाणुका अपने अस्तित्व, वस्तुत्वआदि गुणोंके साथ नित्यसमवाय हो रहा है । जीव, पुद्गल द्रव्योंका भी अपने सामान्य गुणों के साथ नित्यसमवाय हो रहा है । वे संबंध तो किसीके कार्य हुये विना ही विद्यमान हो रहे हैं । ऐसी दशामें संयोग आदिक हेतु मला कार्यहेतुमें कैसे गर्मित किये जा सकते हैं । ? नित्यद्रव्य कोई नहीं सम्भवता है, यह तो नहीं समझना । क्योंकि क्षणिकपर्यायके समान वह नित्यद्रव्य भी प्रमाणोंसे सिद्ध है । तिस्र कारण सम्पूर्ण ही नियतसंबंध व्यक्तियोंमें व्यापक हो रहा और तादात्म्य, तदुत्पत्ति, अन्य ही कोई योग्यतास्वरूप संबंध कहना चाहिये, इस बातको स्वयं ग्रन्थकार स्पष्ट कहते हैं । योग्यताख्यश्व संबंधः सर्व संबंधभेदगः । स्यादेकस्तद्वशालिंगमेकमेवोक्तलक्षणम् ॥ १४४ ॥
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सम्पूर्ण ही संबंधों के भेदप्रभेदोंमें प्राप्त हो रहा योग्यता नामका ही एक संबंध [अविनाभाव ] मान लेना चाहिये । उस एक संबंध के वशसे एक ही प्रकारका हेतु है, जिसका कि " अन्यथानुपपत्त्येकलक्षणं तत्र साधनम् " इस कारिकाद्वारा लक्षण कह दिया गया है।
विशेषतोपि संबंधद्वयस्यैवाव्यवस्थितेः ।
संबंधष्टुवन्नातो लिंगेयत्ता व्यवस्थितेः ॥ १४५ ॥