________________
तत्त्वार्थचिन्तामणिः
अन्यथा यानी देश, काल आदि विशेषणके नहीं लगानेपर तो वह हेतु व्यभिचारी हो जायगा, जैसे कि उष्णाता साधनेमें भस्म हेतु व्यभिचारी हो जाता है । हो, यदि भूतकालका उष्णपना या वह्निसहितपना साधना होय तो अविनाभाव रखता हुआ भस्म ( राख ) हेतु समीचीन है । इस प्रकार हेतुकी विशिष्टताको स्वीकृत करता हुआ ही अविनाभावरूप नियम करके साध्यके साथ व्याप्त हो रहे हेतुका ज्ञापकपना यथार्थ बखान रहा बौद्ध अविनाभाव नियमको ही विशेषण वयम् कह रहा है । क्योंकि उस अविनाभावके न होनेपर भी कार्य और स्वभाव संभव हो जाते हैं। देखिये, कुम्हारका कार्य घट है, किन्तु अविनाभाव न होनेके कारण घट हेतुसे कुलालका वहां सद्भाव नहीं जाना जा सकता है । आम्रका स्वभाव वृक्षपना है, एतावता ही वृक्षपन हेतुसे आम्रवृक्षकी ज्ञप्ति नहीं हो जाती है। अन्यथा यानी अविनाभावके विना भी हेतु यदि साध्यका ज्ञापक मान लिया जाय तब तो उस हेतुका उस अविनाभावसे सहितपना विशेषण लगाना व्यर्थ पडेगा, जैसे कि गाढे दहीमें जमा हुआ या शुक्लपना विशेषण व्यर्थ हैं । मिश्रीको मीठा कहना व्यर्थ है । व्यभिचारोंकी निवृत्तिको करता हुआ विशेषण सार्थक माना गया है । तिस कारण संयोगी, समवायी, आदि हेतु भी अविनामावरूप नियमसे विशिष्ट होते हुये अपने नियतसाध्यकी ज्ञप्ति करानेवाले हैं । बौद्ध इस बातको स्वीकार करनेके लिये योग्य हैं । क्योंकि सम्पूर्ण हेतुओंमें विशिष्टपना अन्यथानुपपतिरूपपनेसे सिद्ध हो रहा है । इस कारण तदुत्पत्ति और तादात्म्यकरके अन्यथानुपपत्ति व्याप्त नहीं हो रही है। अन्यथानुपपत्तिका उदर तादात्म्य तदुत्पत्तिसे बहुत अधिक बडा है । तथा किसी अंशमें छोटा भी है। इस प्रकार एकसौ पैंतीसवीं " नान्यथानुपपनत्वं " इस कारिकाका विवरण किया है ।
तद्विशिष्टाभ्यां व्याप्तमिति चेत् त_न्यथानुपपन्नत्वे नान्यथानुपपन्नत्वं व्याप्तमित्यायातं । तच्च न सारं तस्यैव तेनैव व्याप्यव्यापकभावविरोधात् व्याप्यव्यापकयोः कथंचिद्भेदप्रसिद्धः। " व्यापकं तदतनिष्ठं व्याप्यं तन्निष्ठमेव च " इति तयोविरुद्धधर्माध्यासवचनात् ।
यदि बौद्ध यों कहें कि साध्यके विना हेतुका नहीं रह सकनारूप उस अन्यथानुपपत्तिसे विशिष्ट हो रहे तादात्म्य और तदुत्पत्तिकरके तो अन्यथानुपपनपना व्याप्त है। अब कोई दोष नहीं आता है । तब तो हम जैन कहते हैं कि अन्यथानुपपन्नपनेसे ही अन्यथानुपपनपना व्याप्त हुआ ऐसा आया और वह तो कथन निःसार पडेगा। क्योंकि उसका ही उस ही के साथ व्याप्यव्यापक भाव होनेका विरोध है । व्याप्य और व्यापकोंमें कथंचित् भेदकी प्रसिद्धि हो रही है। उसमें और उससे मिन पदार्थोमें भी ठहरनेवाला पदार्थ व्यापक होता है । तथा केवल उसमें ही ठहरनेवाला व्याप्य होता है । जैसे कि वैश्योंमें ही रहनेवाला वैश्यत्व धर्म व्याप्य है, और ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, आदिमें रहनेवाला मनुष्यत्व धर्म व्यापक है । इस प्रकार उन व्याप्य और व्यापकोंमें विरुद्ध धर्मोसे आरूढ हो रहेपनका कथन किया गया है। . ..