________________
तवार्थपित्तामणिः
Marre
हैं कि यह तो न कहना । क्योंकि उस तर्कको स्वयम् प्रमाणपना युक्तिसिद्ध हो रहा है । उसको हम कहे देते हैं । तर्कज्ञान (पक्ष) प्रमाण है ( साध्य ) । अव्यवहित रूपसे स्वार्थका निश्चय करना रूप फलमें और परम्परासे होनेवाले फलोंमें प्रकृष्ट उपकारक होनेसे ( हेतु), जैसे कि प्रत्यक्षज्ञान प्रमाण है ( दृष्टान्त )। तर्कज्ञान अपने विषय हो रहे साध्य और साधनके अविनाभावरूप संबंधके अज्ञानकी निवृत्ति करनारूप स्वार्थनिश्चयस्वरूप अव्यवहित फलको उत्पन्न करनेमें प्रकृष्ट उपकारक है और परम्परासे तो स्वार्थानुमान करनेमें अथवा हेयमें हानबुद्धि और उपादेयमें उपादान बुद्धि तथा उपेक्षणीय तत्त्वोंमें उपेक्षा बुद्धि करनेरूप फलमें करण होता हुआ तर्कवान प्रसिद्ध ही हो रहा है। इस प्रकार तर्कज्ञानमें बहुत विचार हो चुका है। अब तर्कके प्रकरणका उपसंहार किया जाता है कि
ततस्तर्कः प्रमाणं नः स्यात्साधकतमत्वतः।। स्वार्थनिश्चयने साक्षादसाक्षाचा(नु)न्यमानवत् ॥ १२०॥
तिस कारण हम स्याद्वादियोंके यहां तर्कज्ञान (पक्ष) प्रमाण है (साध्य), अपना और अर्यका निश्चय करनेमें साधकतमपना होनेसे (हेतु), जैसे कि अनुमानज्ञान अथवा अन्य सच्चे ज्ञान प्रमाण हैं (दृष्टान्त)। अपने विषय हो रहे स्वार्थकी अज्ञाननिवृत्ति करना प्रत्येक ज्ञानका साक्षात् फल है और पीछे परम्परासे आत्माके पुरुषार्थकी प्रवृत्ति अनुसार छोडना, ग्रहण करना, उपेक्षा करनारूप फल है। केवलज्ञान भी अज्ञानकी निवृत्तिको करता हुआ सकल पदार्थोकी उपेक्षा करा देता है। तमी स्वांशोंमें स्थिर रह सकता है । यहांतक तर्कज्ञानका विचार परिपूर्ण हुआ। अब मतिज्ञानके अमिनिबोध भेदका विचार चलाते हैं।
साधनात्साध्यविज्ञानमनुमानं विदुर्बुधाः ।।
प्रधानगुणभावेन विधानप्रतिषेधयोः ॥ १२१ ॥
विद्वान् पुरुष साधनसे साध्यके विज्ञानको अनुमान प्रमाण मानते आ रहे हैं । वह अनुमान ज्ञान प्रधानरूपसे प्रकृत साध्यके विधान करने और गौणरूपसे साध्यमिन पदार्थोके निषेध करमेमें चरितार्थ हो रहा है अथवा उपलब्धि और अनुपलब्धि हेतुद्वारा प्रधान और गौणरूपसे साध्यकी विधि और निषेध करनेमें प्रवर्त रहा है । उपलब्धि हेतु विधिको साधता है और निषेधको भी साधता है । इसी प्रकार अनुपलब्धि हेतु भी विधिनिषेध दोनोंको साधसकता है।
अन्यथानुपपत्त्येकलक्षणं तत्र साधनं । साध्यं शक्यमभिप्रेतमप्रसिद्धमुदाहृतम् ॥ १२२ ॥