________________
तत्वार्थचिन्तामणिः
विषयोंमें भी निर्णयार्थ मनुष्यों की प्रवृत्ति हो रही है। आचार्य कहते हैं कि यदि इस प्रकारका शंकाकारका मन्तव्य है, तब तो हम कहेंगे कि तुम्हारे मतमें प्रमाणके विषयका साधन करनेवाला संशयज्ञान प्राप्त हुआ । अप्रमाणपनेसे संशयज्ञानकी जो व्यवस्था हो रही थी वह न रही । इसी प्रकार प्रमाणका साधक तर्कज्ञान भी प्रमाण मान लिया जाय, यदि तर्कको संशयकी जातिवाला माना जायगा । क्योंकि मिथ्याज्ञान के वैशेषिकोंने संशय, विपर्यय और तर्क, ये तीन भेद किये हैं, तब तो वह संशय से मिन्न होकर स्थित हुआ । ऐशी दशामें पदार्थोंकी संख्या करना क्यों नहीं दूसरे प्रकारसे हो जाओ, यह दोष तुमको घेर लेता है । द्रव्य, गुण, आदिमें तो तर्क नहीं गिनाया है । तिस कारण स्वयं अपने स्वरूपको जाननेवाले और प्रमाणसे करने योग्य कार्यको बनानेवाले समीचीन तर्कज्ञानको जो अप्रमाणपना कह रहे हैं, वे वैशेषिक विना विचार करके ही अपनी ऐंठ [ शेखी ] विस्तार के साथ बखान रहे हैं।
प्रमाणं तर्कः प्रमाणकर्तव्यकारित्वात् प्रत्यक्षादिवत् प्रत्ययसाधनं प्रमाणकर्तव्यं तत्कारी च तर्कः प्रसिद्ध इति नासिद्धो हेतुः । नाप्यनैकांतिकोऽप्रमाणे विपक्षे वृत्त्यभावात् । न हि प्रमेयांतरं संशयादि वा प्रमाणविषयस्य साधनं विरोधात् । ततस्तर्कस्य प्रमाणविषयसाधकत्वमिच्छता प्रमाणत्वमुपगंतव्यम् ।
1
तर्कज्ञान (पक्ष) प्रमाण है (साध्य), प्रमाणसे करने योग्य कार्योंका करनेवाला होनेसे ( हेतु ) जैसे प्रत्यक्ष, अनुमान, आदिक प्रमाण हैं [ दृष्टान्त ] । प्रमाणका कर्तव्यं प्रतीतिका साधन करना है । उसका करनेवाला तर्कज्ञान प्रसिद्ध ही है। इस कारण हेतु पक्षमें रह जाता है । असिद्ध हेत्वाभास नहीं है | तथा यह हेतु व्यभिचारी भी नहीं है । संशय आदिक अप्रमाणरूप विपक्षोंमें प्रमाण1 कर्तव्यकारित्व हेतु नहीं वर्तता है । प्रतियोगीके सदृशको पकडनेवाले पर्युदास पक्षके अनुसार अप्रमाण संशय आदिक हैं । और नञ् द्वारा सर्वथा निषेधको ही करनेवाले प्रसज्यनिषेध के अनुसार घट, पट, आदि अप्रमाण हैं । वे सभी इतर प्रमेय अथवा संशय आदिक विचारे अप्रमाण पदार्थ प्रमाणविषय के साधक नहीं हैं। यानी प्रमाणद्वारा साधने योग्य कार्यको नहीं कर सकते हैं, क्योंकि विरोध आता है । तिस कारण तर्कको प्रमाणविषयका साधकपना चाहनेवाले वादकिर के उसका प्रमाणपना स्वीकार कर लेना चाहिये ।
किञ्च — और भी एक यह बात है कि
सम्यक् तर्कः प्रमाणं स्यात्तथानुग्राहकत्वतः । प्रमाणस्य यथाध्यक्ष मनुमानादि चाश्नुते ।। ११६ ॥ अनुग्राहकता व्याप्ता प्रमाणत्वेन लक्ष्यते । प्रत्यक्षादौ तथाभासे नागमानुग्रहक्षतेः ॥ ११७ ॥
१६७