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तत्वार्यश्लोकवार्तिक
संबंधके ग्रहणकी अपेक्षा नहीं है। किन्तु अनुमानकी उत्पत्तिमें संबंधग्रहणकी अपेक्षा है । संसारके कार्य अनेक प्रकारोंके होते हैं । अतः तर्कज्ञानमें अनवस्था दोष नहीं आता है । इस प्रकार मतिज्ञानका एक भेद तर्कज्ञान मानना युक्त है।
प्रमाणविषयस्यायं सा(शो)धको न पुनः स्वयं । प्रमाणं तर्क इत्येतत्कस्यचिव्याहतं मतम् ॥ ११० ॥ प्रमाणविषये शुद्धिः कथं नामाप्रमाणतः । प्रमेयांतरतो मिथ्याज्ञानाचैतत्पसंगतः ॥ १११ ॥
अनुमान प्रमाणके विषयका साधक या परिशोधक यह तर्कज्ञान स्वयं तो प्रमाण नहीं है । जो ज्ञान प्रमाणका साधक है वह प्रमाण ही होय यह कोई नियम नहीं है । पण्डितोंके पिता पण्डित ही होय ऐसी व्याप्ति नहीं है । घटके साधक कुम्भकार, दण्ड, चक्र, आदि कारण घटरूप नहीं हैं । सुवर्णके शोधक पदार्थ सुवर्णस्वरूप नहीं हैं । अतः अनुमान प्रमाणका साधक तर्क ज्ञान एकान्तरूपसे प्रमाण नहीं कहा जा सकता है । प्रन्थकार कहते हैं कि इस प्रकार यह किसीका मन्तव्य व्याघातदोषसे युक्त है। क्योंकि प्रमाणके विषयमें शुद्धि करना भला अप्रमाण ज्ञानसे कैसे हो सकता है ? अन्यथा यानी अप्रमाण पदार्थसे प्रमाणकी शुद्धि होना माना जायगा तब तो दूसरे घट, पट आदि प्रमेयोंसे अथवा संशय आदिक मिथ्याज्ञानोंसे भी इस प्रमाण विषयके शोधकपनका प्रसंग हो जायगा।
यथा संशयितार्थेषु प्रमाणानां प्रवर्तनं । निर्णयाय तथा लोके तर्कितेष्विति चेन्मतम् ॥ ११२ ।। संशयः साधकः प्राप्तः प्रमाणार्थस्य ते तथा । नाप्रमाणत्वतस्तर्कः प्रमाणमनुमन्यताम् ॥ ११३॥ स चेत्संशयजातीयः संशयात्पृथगास्थितः। कथं पदार्थसंख्यानं नान्यथास्त्विति त्वश्नुते ॥ ११४ ॥ तस्मात्प्रमाणकर्तव्यकारिणो वेदितात्मनः । सतर्कस्याप्रमाणत्वमवितर्का प्रचक्षते ॥ ११५ ॥
यहां शंका है कि जिनमें संशय उत्पन्न हो चुका है, उन अर्थोमें निर्णय करनेके लिये जिस प्रकार प्रमाणोंकी प्रवृत्ति होना लोकमें देखा जाता है, तिस ही प्रकार तर्कसे जाने गये