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तस्वार्थीचन्तामणिः
तिस कारण वह संबंधी ज्ञप्ति यदि स्वयं अपने प्रत्यक्ष प्रकार उत्थापक संबंधी विकल्पना करती हुयी प्रतीति है, कोई भी प्रत्यक्ष स्वयं अपने आप तो संबंध को नहीं जान
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यह पुस्तक है इस प्रकार आकारवाली प्रत्यक्ष
स्वरूपमें प्रतिष्ठित हो रही तिस तब तो वह नहीं बनती है । अर्थात् रहा है । क्योंकि " यह घट है " द्वारा प्रतीतियां हो रही हैं। इनमें संबंध तो नहीं प्रतिभासता है । यदि द्वितीय विकल्पके अनुसार अन्य प्रत्यक्षोंसे प्रकृत प्रत्यक्षके उत्थापक संबंध का ग्रहण होना मानोगे सो भी ठीक नहीं पडेगा । अनवस्था दोषका प्रसंग होता है । क्योंकि उस प्रत्यक्ष उत्थापक संबंध का भी अन्य प्रत्यक्षोंकरके विशेष निश्चय किया जायगा और उन प्रत्यक्षोंके उत्थापक संबंधों का भी निर्णय न्यारे न्यारे अन्य प्रत्यक्षों करके किया जायगा । कहीं दूर भी जाकर ठहरना नहीं हो सकता है ।
नानुमानेन तस्यापि प्रत्यक्षायत्तता स्थितेः । अनवस्थाप्रसंगस्य तदवस्थत्वतस्तराम् ॥
तथा तृतीय विकल्पके अनुसार अनुमान करके प्रत्यक्ष के तो नहीं बनता है। क्योंकि उस अनुमानकी भी स्थिति प्रत्यक्षके
१०७ ॥
उत्थापक उस संबंधका ग्रहण होना
अधीन है । अतः उस प्रत्यक्षके
लिये पुनः अनुमान द्वारा संबंध ग्रहण करना आकांक्षित होगा, अतः अनवस्था दोषका प्रसंग वैसाका वैसा ही बहुत बढिया ढंगसे तदवस्थ रहा ।
स्वसंवेदनतः सिद्धेः स्वार्थसंवेदनस्य चेत् ।
संबंधोक्षधियः स्वार्थे सिद्धे कश्चिदतीन्द्रियः ॥ १०८ ॥ क्षयोपशमसंज्ञेयं योग्यतात्र समानता ।
सैव तर्कस्य संबंधज्ञान संविचितः स्वतः ॥ १०९ ॥
अपने विषयभूत अर्थकी अच्छी ज्ञप्ति करनेवाले इन्द्रियजन्य ज्ञानका अपने अर्थ में संबंध का ग्रहण यदि स्वसंवेदन से ही सिद्ध हुआ माना जावेगा अर्थात् स्वके द्वारा योग्य अर्थका ज्ञान करा देना ही संबंध ग्रहण है, तब तो कोई अतीन्द्रिय संबंध सिद्ध हो जाता है। जिसका कि दूसरा नाम क्षयोपशम है । अथवा स्वार्थसंवेदनकी स्वसंवेदन की स्वसंवेदनसे सिद्धि होने के कारण ही इन्द्रिय जन्य ज्ञानका कोई लब्धिरूप अतीन्द्रिय संबंध सिद्ध है, ऐसा होनेपर क्षयोपशमनामकी यह योग्यता इस तर्कज्ञानमें भी समान है। तर्कज्ञान के विषयभूत संबंधके ज्ञानकी स्वतः संवित्ति होनेसे वह योग्यता नियामक मानी जाती है अर्थात् प्रत्यक्षज्ञान जैसे घटको जाननेमें स्वतंत्र है, उत्पत्ति होने में म ही इन्द्रिय आदिककी अपेक्षा करें तथा अपनी योग्यता अनुसार अनुमानज्ञान साध्यको जानने