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तच्चार्य कोकवार्तिके
प्रत्यक्ष के समान ऊज्ञानका भी स्वार्थप्रकाशकपना अपनी योग्यताकी सामर्थ्य से व्यवस्थित हो रहा ही है । देखिये । प्रत्यक्षज्ञान अपने जानने योग्य विषयोंके साथ संबंध के ग्रहणकी अपेक्षा नहीं रखता है । यदि प्रत्यक्षकी उत्पत्तिमें भी संबंधका ग्रहण होना मानोगे तो अनवस्थाका प्रसंग है । प्रत्यक्षके उत्थापक संबंधोंका ज्ञान अन्य प्रत्यक्षोंसे होवेगा । जिज्ञासा बढती चली जायगी । इसको ग्रन्थकार स्पष्ट कहकर दिखलाते हैं ।
ग्राह्यग्राहकभावो वा संबंधोन्योपि कश्चन ।
स्वार्थेन गृह्यते केन प्रत्यक्षस्येति चिन्त्यताम् ॥ १०४ ॥
प्रत्यक्षका अपने विषय के साथ ग्राह्यग्राहकभाव संबंध या विषयविषयीभाव संबंध अथवा और कोई तदुत्पत्ति, तदाकार संबंध तो बताओ ? किसके द्वारा ग्रहण किये जायेंगे ! इसका आप कुछ समयतक चितवन करो । प्रत्यक्ष के उत्पादक संबंधको प्रत्यक्ष द्वारा जाननेपर अनवस्था दोष लग जायगा ।
प्रत्यक्षस्यापि स्वार्थे संबंधो ग्राह्यग्राहकभावः कार्यकारणभावो वाभ्युपगंतव्य एवान्यथा ततः स्वार्थप्रतिपत्तिनियमायोगादतिप्रसंगात् । स च यदि गृहीत एवाध्यक्षप्रवृत्तिनिमित्तं तदा न गृह्यत इति चिन्त्यं स्वेन प्रत्यक्षांतरेणानुमानेन वा ।
प्रत्यक्षका भी अपने प्राह्यविषयमें संबंध कोई ग्राह्यग्राहकभाव, कार्यकारणभाव, अथवा विषयविषयीभाव, अवश्य स्वीकृत करना ही पडेगा । अन्यथा उस प्रत्यक्ष से अपने ग्राह्य अर्थोकी प्रतीति करनेका नियम नहीं बन सकेगा । अतिप्रसंग हो जायगा । यानी संबंध को नहीं प्राप्त हुये देशान्तर, कालान्तरके पदार्थों को भी प्रत्यक्ष जान सकेगा । कोई रोकनेवाला नहीं । अतः संबंध जानना आवश्यक हुआ और वह संबंध किसी ज्ञानसे गृहीत हुआ संता ही अध्यक्षकी प्रवृत्तिका निमित्त कारण बनेगा, तब तो वह पुनः किस ज्ञानसे ज्ञात किया जाय ? इसका हृदयमें गहरा विचार करना चाहिये । क्या वह प्रत्यक्ष स्वयं अपने से ही अपने उत्थापक संबंधका ज्ञान कर लेगा ? या दूसरे प्रत्यक्षों करके संबंध जाना जायगा ! अथवा अनुमान करके प्रत्यक्ष के कारण संबंधकी ज्ञप्ति की जायगी ! बताओ ।
स्वतश्वेतादृशाकारा प्रतीतिः स्वात्मनिष्ठिता ।
नासौ घटयमित्येवमाकारायाः प्रतीतितः ॥ १०५ ॥
प्रत्यक्षांतरतश्चेन्नाप्यनवस्थानुषंगतः ।
तत्संबंधस्य चान्येन प्रत्यक्षेण विनिश्वयात् ॥ १०६ ॥