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तत्त्वार्थ लोकवार्तिक
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में स्वतंत्र है, उसी प्रकार तर्कज्ञान ही योग्यताके वश अपने साध्य और साधनके संबंधको विषय करनेमें स्वतंत्र है । उत्पत्ति भले ही अन्य उपलम्भ अनुपलम्भसे हो जाय किन्तु संबंधके ग्रहणमें अन्य मध्यवर्ती ज्ञानोंकी आवश्यकता नहीं है। योग्यता भला किस बीमारीकी औषधि है ! यदि निरपेक्ष होकर नियत विषयका ग्रहण नहीं करावेगी तो फिर उसका गांठका कार्य ही क्या हुआ ? कुछ भी तो नहीं। . न प्रत्यक्ष स्वार्थे संबंधग्रहणापेक्षं प्रवर्तते कचिदकस्मात्तत्मवृत्तिदर्शनात् । किं तर्हि । तस्य खसंवेदनादिवत्वार्थग्रहणसिद्धिः । स्वतोवीन्द्रियः कश्चित्संबंधः स्वार्थानु मानः सिद्धयेदिति चेत् सैव योग्यता स्वावरणक्षयोपशमाख्या प्रत्यक्षस्यार्थप्रकाशनहेतुरिह समायाता। तर्कस्यापि स्वयं व्याप्तिग्रहणानुभवात्तज्ज्ञानावरणक्षयोपशमरूपा योग्यतानुमीयमाना सिद्धयतु प्रत्यक्षवदनवस्थापरिहारस्यान्यथाकर्तुमशक्तेः।।
प्रत्यक्षप्रमाण अपने विषयमें संबंधके ग्रहणकी अपेक्षा रखता हुआ नहीं प्रवर्तता है। क्योंकि किसी एक विषयमें अकस्मात् ( चाहे जब ) उसकी प्रवृत्ति होना देखा जाता है तो, क्या है ! ऐसी जिज्ञासा होनेपर यह उत्तर है कि स्वसम्वेदन, चित्रवेदन, आदिके समान उस प्रत्यक्षकी स्वार्थको ग्रहण करनेकी सिद्धि हो रही है । अर्थात् इन्द्रिय, आत्मा, विषय, आदिकी योग्यता मिलने पर स्पष्ट [ भडाक सीदे ] इन्द्रियजन्य प्रत्यक्ष हो जाता है। कोई संबंधकी आवश्यकता नहीं है। इसपर यदि कोई कहे कि स्वार्थके नियतरूपसे ग्रहण किये जानेरूप कार्यको देखकर किसी न किसी अतीन्द्रिय संबंधका अनुमान हो जानेसे इन्द्रियोंद्वारा नहीं जानने योग्य संबंध सिद्ध हो जावेगा, चक्षुसे रूप ही जाना जाता है । रस आदिक नहीं, तथा एक कोस दो कोस आदि तकके दूरवर्ती रूपोंका ही ज्ञान होता है । दस बीस कोसके दूर घर आदिकोंका चाक्षुष प्रत्यक्ष नहीं होता है। हां, दूरवर्ती सूर्य, चंद्रमा, तारे दीख जाते हैं, इन बातोंका नियम करनेवाला कुछ भी तो संबंध होना चाहिए। ऐसा कहनेपर तो हम जैन कहते हैं, वही विषयविषयीभावका नियामक संबंध तो योग्यता है। जिस योग्यताका दूसरा नाम वावरणकर्मीका क्षयोपशम है । वही योग्यता प्रत्यक्षके द्वारा नियत अर्थोके प्रकाश करनेका हेतु है । तब तो इस प्रकरणमें वही योग्यता मले ढंगसे प्राप्त हो गई, इसी प्रकार तर्कज्ञानकी स्वयं व्याप्तिका ग्रहणरूप अनुभवसे उस तर्कज्ञानके आवरण करनेवाले कर्मोका क्षयोपशमसूप योग्यता भी अनुमानसे जान ली गई, सिद्ध हो जाओ । अन्यथा यानी योग्यताको माने विना अनवस्था दोषका परिहार दूसरे ढंगोंसे नहीं किया जा सकता है । जैसे कि प्रत्यक्षमें योग्यताको माने विना अनवस्थाका परिहार नहीं हो सकता है।
.. ननु च यथा तर्कस्य खविषयसंबंधग्रहणमनपेक्षमाणस्य प्रवृत्तिस्तथानुमानस्यापि सर्वत्र ज्ञाने स्वावरणक्षयोपशम एव स्वार्थप्रकाशनहेतुरविशेषात् । ततोनर्थकमेव तत्संबंध