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तत्त्वार्यचिन्तामणिः
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तर्कज्ञान ( पक्ष ) प्रमाण है ( साध्य ) सफल प्रवृत्ति या बाधाविरह अथवा प्रमाणान्तरों की प्रवृत्तिरूप सम्वादका जनक होनेसे ( हेतु १ ) अप्रसिद्ध अर्थका यानी अपूर्व अर्थका ग्राहक होने से ( हेतु २ ) संशय, विपर्यय, अनध्यवसाय और अज्ञानरूप समारोपका निवर्तक होनेसे ( हेतु ३ ) प्रमाणभूत हो रहे उपलम्भ अनुपलम्भरूप मतिज्ञान और धारणा, स्मृति, प्रत्यभिज्ञानरूप मतिज्ञानको कारण मानकर उत्पन्न हुआ होनेसे ( हेतु ४) जैसे कि अनुमान, आगम, आदि ज्ञान प्रमाण हैं । इस प्रकार उपर्युक्त प्रकरण बहुत अच्छा कहा गया है, ऐसा हम समझते हैं ।
ननूहो मतिः स्वयं न पुनर्मतिनिबंधन इति चेन्न, मतिविशेषस्य तस्य पूर्वमतिविशेषनिबंधनत्वाविरोधात् साधनस्यासिद्धत्वायोगात् । न च तन्निबंधनत्वं प्रमाणत्वेन व्याप्तमनुमानेन स्वयं प्रतिपन्नं लिंगज्ञानमतिविशेषपूर्वकत्वस्य प्रमाणत्वव्याप्तस्य तत्र प्रतीतेर्व्यभि चाराभावात् । श्रुतेन व्यभिचार इति चेन्न, तस्य प्रमाणत्वव्यवस्थापनात् । तदव्यभिचारिणो मतिनिबंधनत्वात्संवादकत्वादेवोहः प्रमाणं व्यवतिष्ठत एव ।
यहां शंका है कि ऊह यानी तर्कज्ञान तो स्वयं मतिज्ञान है, किन्तु फिर मतिज्ञानरूप कारणों से उत्पन्न हुआ तो नहीं है । ग्रन्थकार कहते हैं कि ऐसा तो न कहना। क्योंकि स्मरणनामके मतिज्ञान में जैसे अनुभवनामका मतिज्ञान कारण पड जाता है, उसी प्रकार उस तर्कनामक विशेष मतिज्ञानका कारण उसके पूर्व में हुये दूसरे स्मृति, प्रत्यभिज्ञान, उपलम्भ, अनुपलम्भ आदि मतिज्ञानविशेष हैं । कोई विरोध नहीं पडता है । मतिज्ञानको कारण मानकर उत्पन्न होनापन हेतु पक्षमें रह जाता है । अतः असिद्ध हेत्वाभासपनका योग नहीं है । अनुमानरूप दृष्टांत में मतिज्ञानरूप कारणसे उत्पन्न होनारूप हेतु प्रमाणपनरूप साध्यके साथ व्याप्तिको रखता हुआ स्वयं नहीं जाना है, यह नहीं समझना, किंतु हेतुका ज्ञानरूप विशेष मतिज्ञानको कारण मानकर उत्पन्न होनापन जो कि प्रमाणत्वरूप साध्य के साथ अविनाभाव रखता है । उस हेतुकी वहां अनुमानमें प्रतीति होने का कोई व्यभिचार नहीं है । यदि कोई बौद्ध या आगमको प्रमाण नहीं माननेवाला चार्वाक अथवा वैशेषिक विद्वान् श्रुतज्ञान करके व्यभिचार देवें अर्थात् मतिज्ञानको कारण मानकर श्रुतज्ञान उत्पन्न हुआ है। किंतु वह प्रमाण नहीं माना गया है । अतः साध्यके न रहनेपर भी श्रुतज्ञानमें हेतुके रह जानेसे जैनोंका चौथा हेतु अनैकान्तिक है, आचार्य कहते हैं कि यह तो न कहना । क्यों कि उस श्रुतज्ञानको प्रमा
पना व्यवस्थित करा दिया है। हेतुके रहनेपर साध्य के भी ठहर जानेसे व्यभिचारका निवारण हो जाता है । उस प्रमाणपन के साथ अव्यभिचारी हो रहे मतिनिबंधनत्व हेतुसे तर्क में प्रमाणपना व्यवस्थित होय ही जाता है । अथवा अकेले पहिले सम्वादकपन हेतुसे ही तर्कज्ञान प्रमाणरूप व्यवस्थित हो ही रहा है । हमारे अन्य हेतु सुखसहित बैठे रहें ।