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तत्वार्थ लोकवार्तिके
नूहस्यापि संबंधे स्वार्थे नाध्यक्षतो गतिः । साध्यसाधनसंबंधे यथा नाप्यनुमानतः ॥ १०१ ॥ तस्योहांतरतः सिद्धौ कानवस्थानिवारणं । तत्संबंधस्य चासिद्धौ नोहः स्यादिति केचन ॥ १०२ ॥
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बौद्ध शंका करते हैं कि जैसे लिंगज्ञानसे तर्कद्वारा अनुमान प्रमाण साध्यकी इप्तिको करा देता है और उपलम्भ अनुपलम्भद्वारा संबंधको तर्कज्ञान जता देता है । यहां तर्कके भी अपने विषय हो रहे अविनाभाव संबंध में प्रत्यक्षसे तो ज्ञप्ति हो नहीं सकती है । अर्थात् तर्कज्ञान जिस संबंध के द्वारा देशान्तर कालान्तर के संबंध को जान लेता है, उस संबंध का प्रत्यक्षज्ञानसे तो पूर्वकालमें संबंध ग्रहण हुआ नहीं है । क्योंकि अविचारक प्रत्यक्ष इतने विचारोंको नहीं कर सकता है । तथा तर्कज्ञानसे जाने गये पदार्थोंका अपने साध्य साधन संबंधको जाननेमें जैसे प्रत्यक्षसे गति नहीं है उसी प्रकार अनुमान से भी उस संबंधको नहीं जाना जासकता है । अनवस्था हो जायगी । यदि तर्कसे जाने गये पदार्थोंका अपने ज्ञापक कारणोंके साथ संबंधका जानना पुनः दूसरे तर्कोंसे सिद्ध किया जायगा तब तो अनवस्थादोषका निवारण कहां हुआ ? अर्थात् तर्क के आत्मलाभ में दूसरे तर्ककी और दूसरे तर्क में तीसरे तर्ककी आकांक्षा बढती जानेसे अनवस्था दोष होता है । यदि ऊइसे जानने योग्य पदार्थों का किसी ज्ञापक के साथ संबंध होनेकी सिद्धि न मानी जायगी तब तो ऊहज्ञान प्रमाण नहीं हो सकेगा । संबंध को जाने बिना उत्पन्न हुआ ऊहज्ञान मिथ्याज्ञान हो जायगा अथवा अपने जानने योग्य पदार्थोंका संबंध ग्रहण किये विना यदि ऊ उनको जान लेगा तो अनुमान भी कह द्वारा संबंध ग्रहण किये बिना ही साध्यको जान लेवेगा । फिर तर्कज्ञान प्रमाण क्यों माना जा रहा है, इस प्रकार यहांतक कोई कह रहे हैं ।
ननूहस्यापि स्वाथैरूयैः संबंधोभ्युपगतव्यस्तस्य च साध्यसाधनस्यैव नाध्यक्षाद्गतिस्तावतो व्यापारान् कर्तुमशक्तेः । सन्निहितार्थग्राहित्वाच्च सविकल्पस्यापि प्रत्यक्षस्य नाप्यनुमानतोऽनवस्थाप्रसंगात्, तस्यापि ह्यनुमानस्य प्रवृत्तिलिंगलिंगिसंबंधनिश्वयात् स चोदात्तस्यापि प्रवृत्तिः स्वार्थ संबंध निश्रयात् सोप्यनुमानांतरादिति तस्योहांतरात्सिद्धौ केयमनवस्थानिवृत्तिः । यदि पुनरयमूहः स्त्रार्थसंबंध सिद्धिमनपेक्षमाणः स्वविषये प्रवर्त्तते तदानुमानस्यापि तथा प्रवृत्तिरस्त्विति व्यर्थमूहपरिकल्पनमिति कश्चित् ।
ऊइको नहीं प्रमाण माननेवाला बौद्ध विलक्षण ढंगसे पुन: विचार करनेके लिये जैनों को आमंत्रण करता है कि ऊज्ञानका भी अपने जानने योग्य तर्क्य पदार्थोंके साथ संबंध ग्रहण करना स्वीकार करना चाहिये । उस संबंधका ज्ञान प्रत्यक्षसे तो नहीं हो सकता है, जैसे कि साध्य और