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तत्त्वार्यलोकवार्तिके
पनेका क्यों नहीं प्रत्याख्यान कर देवे और इस प्रकार करता हुआ वह उन्मत्त नहीं समझा जाय अर्थात् जो ज्ञानका जन्म देनेवाले कारणोंको विषय योग्य बनाता है, वह अवश्य उन्मत्त है । तिस कारण प्रत्यक्ष और अनुपलम्भके द्वारा ग्रहण किये जा चुके अर्थोका ग्राहक तर्कज्ञाम नहीं है। सभी प्रकार ग्रहण किये जा चुके अर्थोको तर्कज्ञान नहीं जानता है । हां, उन प्रत्यक्ष अनुपलम्भोंसे कथंचित् थोडेसे गृहीत हुये उन अर्थोका ग्रहण करना तो उस तर्कज्ञानकी प्रमाणताका विरोध नहीं करता है। जैसे कि अनेक प्रत्यक्ष और अनुमान कथंचित् पूर्व अर्थको जानते हुये भी प्रमाण मान लिये गये हैं। इस बातको हम पहिले विस्तारसहित कह चुके हैं।
समारोपव्यवच्छेदात्स्वार्थे तर्कस्य मानता।
लैंगिकज्ञानवन्नैव विरोधमनुधावति ॥ ९८ ॥ __ अपने विषयभूत अविनाभाव संबंधको जाननेमें प्रथम प्रवृत्त हुये संशय, विपर्यय, अनध्यवसाय और अज्ञानरूप समारोपोंका निराकरण करनेसे तर्कज्ञानको प्रमाणपना है। जैसे कि साध्यको जाननेमें संशय आदिको हटाता हुआ अनुमान ज्ञान प्रमाण है। यों विरोध दोषका अनुसरण नहीं है । यानी इस प्रकार कहनेमें कोई विरोध तर्कज्ञानके पीछे नहीं दौडता है ।
प्रवृत्तश्च समारोपः साध्यसाधनयोः कचित् । संबंधे तर्कतो मातुर्व्यवच्छेद्येत कस्यचित् ॥ ९९ ॥
साध्य और साधनके किसी कार्यकारणभाव, व्याप्य व्यापकभाव, पूर्वचरभाव, उत्तरचरभाव, आदि संबंधोंमें यदि कोई संशय अज्ञानरूप समारोप प्रवृत्त हो जाय तो वह समारोप किसी भी प्रमाता आत्माके तर्कज्ञानद्वारा निराकृत हो जाता है ।
संवादको प्रसिद्धार्थ साधनस्तद्यवस्थितः । समारोपछिदूहोत्र मानं मतिनिबंधनः ।। १०० ॥
यहां प्रकरणमें उक्त युक्तियोंसे वह तर्कज्ञान सम्बादक और अपूर्व अर्थका ग्राहक तथा समारोपका व्यवच्छेदक एवं उपलम्भ अनुपलम्भरूप मतिज्ञानको कारण मानकर उत्पन्न हुआ व्यवस्थित हो गया है । अतः इन मतिज्ञानके प्रकारोंमें ऊहज्ञान प्रमाणसिद्ध हो जाता है। ये सब तर्कज्ञानके प्रथमांत विशेषण ज्ञापकहेतु बनकर प्रमाणपनेको साध देते हैं।
प्रमाणमूहः संवादकत्वादमसिद्धार्थसाधनत्वात् समारोपव्यवच्छेदित्वात्प्रमाणभूतमतिज्ञाननिबन्धनत्वादनुमानादिति सूक्तं बुद्ध्यामहे ।