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तत्त्वार्थचिन्तामणिः
सभी वादियों करके तिस कारण अपने अपने अभीष्टकी सिद्धि अवश्य अच्छी करनी ही चाहिये । अन्यथा यानी अभीष्ट सिद्धिके किये बिना कोरा वैतंडिक बनकर दूसरोंके मतका खण्डन करनेके लिये बकझक करनेसे तो केवल व्यर्थ वचन कहनेका प्रसंग हो जायगा और वह अपनी अभीष्टकी सिद्धि तो प्रमाणके अनुसार होती हुई प्रमाणकी सिद्धिको पीछे पीछे खेंच लेती है। उस प्रमाणको स्वीकार नहीं करनेपर वह इष्ट तत्त्वोंकी सिद्धि नहीं हो पाती है । अभीष्टतत्त्व सिद्धि
और प्रमाणसिद्धिका ज्ञाप्यज्ञापकभाव संबंध है । तिन प्रमाणोंमेंसे जो वादी प्रत्यक्षको प्रमाण आवश्यकरूपसे स्वीकार कर रहा है, उसको अनुमान प्रमाण भी अवश्य स्वीकार करना पडेगा। अन्यथा यानीं अनुमानको प्रमाण माने विना समस्तपने करके उस प्रत्यक्षको अप्रमाणोंका व्यवच्छेद कर प्रमाणपनकी सिद्धि न हो सकेगी अर्थात् वर्तमानकालका अपना ही प्रत्यक्ष तो अकेला प्रमाण नहीं माना जायगा। किन्तु साथमें भूत या भविष्य कालोंमें हुये अपने प्रत्यक्ष और अन्य जीवोंके भी अनेक प्रत्यक्ष ज्ञान प्रमाण कहने पडेंगे । उन समस्त प्रत्यक्षोंको प्रमाणपना, अगौणत्व स्पष्टत्व, सम्वाद हेतुओंसे ही साधा जायगा तथा अपने अकेले वर्तमान कालके प्रत्यक्षमें भी प्रमाणपना उक्त हेतुओंसे ही साधने योग्य है। तभी सम्पूर्ण प्रत्यक्षों से अप्रमाणपना व्यावृत्त हो सकता है । अनुमानका निःसन्देह प्रमाणपना स्वीकार करने (इच्छने ) वाले वादीको साध्य और साधनके अविनाभावसंबंधका ग्राहक भी कोई प्रमाण सन्देहरहित ढूंढना चाहिये और वही तो हमारे यहां तर्क माना गया है । उस तर्कसे संबंधके ज्ञानका बाधारहितरूप सम्वाद होना संदेहरहित सिद्ध हो ही जाता है । अन्यथा यानी सम्वादकी सिद्धि हुये विना अन्टसन्ट शंका करना या अपने तत्त्वोंकी यों ही सिद्धि करना केवल व्यर्थवचन बकना है । वह बकना हेय और उपादेय तत्त्वोंकी व्यवस्था कराने वाला नहीं है । चौपाडोंपर बैठकर ग्रामीण पुरुष जैसे झूठी किंवदन्तियां, कहानियां, झूठी गप्पें, हांकते रहते हैं, वैसे ही यह बौद्धोंकी झक झक गमारू चेष्टा करना है । इस प्रकरणमें बहुतसे विवाद करके पूरा पडो । घृत प्राप्त होगया, व्यर्थ मठा बढानेसे कुछ लाम नहीं है । तर्कज्ञानके सम्वाद होने की सिद्धि अब उलंघन करने योग्य नहीं है । भावार्थ:-जो बौद्ध, वैशेषिक, नैयायिक, मीमांसक, आदि विद्वान् प्रत्यक्षोंको प्रमाण मानेंगे, उन्हें कालान्तर, देशान्तर, और पुरुषान्तरोंके प्रत्यक्षोंको प्रमाणपना सिद्ध करनेके लिए अनुमानकी शरण लेना आवश्यक है। पूर्वोक्त विद्वान् अनुमानको प्रमाण मानते भी हैं । किंतु अनुमान प्रमाणकी उत्पत्ति व्याप्ति ज्ञानको प्रमाण माने विना नहीं होती है । अतः तर्कज्ञान प्रमाण है, इस निर्णयपर पहुंच जाओ ।
गृहीतग्रहणात्तकोऽप्रमाणमिति चेन्न वै। . तस्यापूर्थिवदित्वादुपयोगविशेषतः ॥ ९३॥