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तरवार्य लोकवार्तिके
प्रत्यक्षानुपलंभाभ्यां संबंधो देशतो गतः । साध्यसाधनयोस्तर्कात्सामस्त्येनेति चिंतितम् ॥ ९४ ॥ प्रमांतरागृहीतार्थप्रकाशित्वं प्रपंचतः ।
प्रामाण्यं च गृहीतार्थग्राहित्वेपि कथंचन ॥ ९५ ॥
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किसीका पूर्वपक्ष यों होय कि तर्कज्ञान ( पक्ष ) अप्रमाण है ( साध्य ) । पहिले प्रमाणोंसे ग्रहण किये जा चुके विषयका ग्राहक होनेसे ( हेतु ) । ग्रन्थकार कहते हैं कि यह तो अनुमान बनाकर नहीं कहना । क्योंकि उस तर्कको अपूर्व अर्थका निश्वयसे ग्राहकपना प्राप्त है । पहिले प्रत्यक्ष और अनुपलम्भ प्रमाणोंसे देशान्तर कालान्तरवर्त्ती साध्य साधनोंके संबंधका ज्ञान नहीं हो चुका था । किन्तु संबंधको जाननेमें तर्कका ही विशेष उपयोग है । पहिले प्रत्यक्ष और अनुपलम्भ द्वारा एक देशसे संबंध जाना गया था और तर्कसे साध्य साधनका संबंध सम्पूर्णरूपसे जान लिया जाता है । इसको हम पूर्व में विस्तारसे विचार कर चुके हैं । अतः अन्य प्रमाणोंसे नहीं ग्रहण किये गये अर्थका प्रकाशकपना तर्क में घट जाता है। दूसरी बात यह है कि कथंचित् गृहीत अर्थका ग्राहक होते ये भी तर्कज्ञानका प्रामाण्य प्रतिष्ठित हो जाता है । प्रतिदिन कई बार व्यवहार में आ रही वस्तुओंका ज्ञान हो चुकनेपर भी क्षणोंकी विशिष्टतासे कुछ विशेष अंश अधिक जाननेवाले ज्ञान प्रमाण माने गये हैं । सर्वज्ञके प्रत्यक्षको भी विषयों में कालके तारतम्यकी उपाधि लग जानेसे अपूवार्थग्राहीपना घटित हो जाता है। सभी प्रकार नवीन नवीन अर्थोंको तो सर्वज्ञज्ञान जानता नहीं है किन्तु जिसको भविष्य रूपसे जाना है, वह वर्त्तमान हो गया है। वर्तमान पदार्थ दूसरे समयमें भूत हो जाता है । और भूत पदार्थ चिरभूत होकर जाना जाता है। इस प्रकार अपूर्व अर्थग्रहणका निर्वाह करना तर्कज्ञानमें भी लगा लो 1
किं च - दूसरा कारण यह भी है कि
लिंगज्ञानाद्विना नास्ति लिंगिज्ञानमितीष्यति । यथा तस्य तदायत्तवृत्तिता न तदर्थता ॥ ९६ ॥ प्रत्यक्षानुपलं भादेर्विनानुद्भूतितस्तथा । तर्कस्य तज्ज्ञता जातु न तद्गोचरतः स्मृता ॥ ९७ ॥
जैसे हेतुज्ञानके विना साध्यका ज्ञान नहीं होता है । इस कारण उस साध्यज्ञानकी उस तुज्ञानके अधीन होकर प्रवृत्ति होना ऐसा जाना जाता है । किन्तु उस हेतुज्ञानका साध्यज्ञान द्वारा विषय हो जानापन नहीं है। भावार्थ साध्यज्ञानका उत्पादक कारण हेतुज्ञान है, अवलम्ब