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________________ २५२ तस्वार्थ लोकवार्तिके ऐसी पोलम्पोलकी दशामें बौद्धोंके यहां किसी भी ज्ञान या ज्ञेय पदार्थकी व्यवस्था नहीं हो सकती है। यहांतक बात पहुंच जायगी कि देवदत्तको कुटुम्ब, धन, गृह, आदिक भी वासनासे दीख रहे हैं । वस्तुतः कुछ नहीं है । देश, देशान्तर, पर्वत, नदी, बम्बई,कलकत्ता,आदि नगर, सूर्य, चन्द्रमा, रेलगाडी, मेघवृष्टि, न्यायालय, बाजार, क्रय, विक्रय, आदि सम्पूर्ण पदार्थ मायाजाल हैं । देवदत्तकी आत्मामें बैठी हुई अनादिकालीन वासनायें इन खेलोंको दिखा रही हैं। अधिक क्या कहा जाय ? प्रत्येक रोगी, दरिद्र, या कीट जीव भी जगत्की प्रक्रियाको इन्द्रजालके समान कल्पित मानकर खयम् खेल देखनेवाला कहा जासकता है। रेलगाडीमें बैठकर कलकत्तेको जारहा देवदत्त मनमें विचार सकता है कि यह रेलगाडीका चलना कानपुर, प्रयाग, पटना, या अन्य पथिकोंका चढना उतरना कोई वस्तुभूत नहीं है । मेरी वासनायें ही मुझे यह खेल दिखा रही हैं । रोगी होना, मूंखलगना, भोजन करना, पूजन, सामायिक, वाणिज्य, भोग, परिभोग, चहल, पहल, ये सब वासनाओंसे दीख रहे हैं, वस्तुभूत महीं हैं । इस प्रकार किसी भी अंतरंग बहिरंग तत्त्वकी व्यवस्था बौद्धोंके यहां नहीं हो सकती है । महान् अन्धेर छा जायगा। परितोषहेतोः पारमार्थिकत्वेप्युक्तं स्वप्नोपलब्धस्य तत्त्वप्रसंगात् इति न हि तत्र परितोषः कस्यचिन्नास्तीति सर्वस्य सर्वदा सर्वत्र नास्त्येवेति चेत् जाग्रदशार्थक्रियायास्तर्हि सुनिश्चितासंभवद्बाधकत्वात् परमार्थसत्त्वमित्यायातं । तथा चार्थानां संबंधितार्थक्रिया संबंधस्य कथं परमार्थसतीति न सिद्धयेत् । न हि तत्र कस्यचित्कदाचिद्वाधकप्रत्यय उत्पद्यते येन सुनिश्चितासंभवबाधकत्वं न भवेत् ।। बौद्ध यदि आत्माको परितोषके कारण अर्थोको वस्तुभूत पदार्थ मानेंगे तो भी वस्तुव्यवस्था नहीं हो सकेगी, इसको हम कह चुके हैं । स्वप्नमें देखे हुये पदार्थोसे भी कुछ कालतक परितुष्टि हो जाती है । अतः स्वप्नमें जाने हुये स्त्री, धन, जल, घोडा, प्राम, आदि पदार्थीको भी पारमार्थिकपनेका प्रसंग हो जायगा। उस स्वप्नमें देखे हुये पदार्थमें किसीको भी प्रसन्नता नहीं है, यह तो नहीं कह सकते हो। क्योंकि स्वप्न देखे पीछे कुछ देरतक सुखदुःख अनुभवे जाते हैं । यदि बौद्ध यों कहें कि सभी स्वप्नदर्शी प्राणियोंको सर्वदा सभी स्थलोंपर परितोष होता नहीं है। अतः स्वप्न दृष्ट पदार्थोका परितोषकारीपना व्यभिचरित हुआ । इसपर तो हमें फिर यही कहना पडता है कि जागती दशाकी अर्थक्रियाके बाधकोंका असम्भव अच्छा निश्चित हो रहा है । अतः जागृत अवस्थामें पदार्थ परमार्थरूपसे सत सिद्ध होगये, यह सिद्धान्त बौद्धोंके कहे विना ही प्राप्त हो गया और तिस प्रकार होनेपर संबंधी अर्थोको संबंधी करदेनारूप अर्थक्रिया क्यों नहीं परमार्थरूपसे विद्यमान हो रही सिद्ध हो जायगी ? जागती अवस्थामें देखे गये घट आदिक पदार्थोकी उन जलधारण, जल शीतलता आदि अर्थक्रियाको करनेमें किसीके भी किसी भी समय बाधकज्ञान नहीं उत्पन्न
SR No.090497
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 3
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1953
Total Pages702
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size21 MB
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