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तत्त्वार्थचिन्तामणिः
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नियत कारणोंके अधीन उत्पन्न हुई किन्हीं सदृश पदार्थोको सामान्य नामके सदृश परिणामसे " यह इसके समान है" ऐसे ज्ञान करानारूप कार्यके प्रतिकारणता मानी है। तब तो हम जैन कहेंगे कि वही अपने नियत कारणोंसे किन्हीं विवक्षित अर्थोके संबंधितपनेका ज्ञान करानेवाला संबंध परिणाम ही तो संबंधिता है। जैसे कि तिर्यक्सामान्य या ऊर्ध्वतासामान्य नामक वस्तुभूत परिणतियां सामान्य पदार्थ हैं। संबंधिताका अपने कारणोंसे उत्पन्न होना बौद्धोंने मान लिया। अतः बौद्धोंके और हमारे यहां केवल नाम रखनेमें ही भेद हुआ, अर्थका फिर कोई भेद नहीं है । दूध बूग, दाल लवण, आत्माज्ञान, जीव-पुद्गल, पुद्गल-पुद्गल आदि पदार्थोके वास्तविक संबंधको हम पहिले प्रकरणोंमें बडे विस्तारसे भले प्रकार सिद्ध कराचुके हैं। यहां प्रकरण बढानेसे कोई लाभ नहीं है।
संबंधितास्य मानव्यवस्थितिहेतुरित्यलं विवादेन । निर्वाधं संबंधितायाः स्वबुद्धः स्वार्थक्रियायाः संबंधस्य व्यवस्थानात् । पावकंस्य दाहाद्यर्थक्रियावत् संवेदनस्य स्वरूपप्रतिभासनवद्वा तस्या वासनामात्रनिमित्तत्वे तु सर्वार्थक्रिया सर्वस्य वासनामात्रहेतुका स्यादिति न किंचित्परमार्थतार्थक्रियाकारीति कुतो वस्तुत्वव्यवस्था ।
मिले हुये पदार्थोका संबंधीपना ही इस संबंधकी प्रमाणविषयताको व्यवस्थित करानेमें अव्य' भिचारी कारण है । अतः इस विषयमें अधिक विवाद करनेसे कुछ भी साध्य नहीं है। संबंधकी भले प्रकार सिद्धि हो जाती है । सबंधकी निज अर्थक्रिया यही है कि बाधारहित होकर संबंधीपना. रूप स्वकीय बुद्धिकी व्यवस्था हो रही है, जैसे कि अग्निकी दाह करना, शोषण करमा, पाककरना, आदि अर्थक्रिया है । अथवा बौद्धोंके माने हुये संवेदनकी अपनी गांठकी अर्थक्रिया स्वरूपका प्रति. भास करना है । इसी प्रकार बाधारहित संबंधबुद्धि करा देना संबंधकी अवश्यंभाविनी अर्थक्रिया है। भावार्थ-संबंधके कार्यतावच्छेदकावच्छिन्नज्ञानको तो बौद्ध मान लेते हैं। किन्तु संबंधज्ञानके कारणतावच्छेदकावछिन्नसंबंधको नहीं स्वीकार करते हैं। भ्राताओ ! देखो, वस्तुभूत कारणसे ही बस्तुभूत कार्य उत्पन्न हो सकता है । यदि उस संबंधज्ञानकी केवल झूठी वासनाओंके निमित्तसे उत्पत्ति होना मानोगे तब तो सम्पूर्ण पदार्थोकी सभी अर्थक्रियायें केवल वासनाओंको हेतु मानकर ही उत्पन्न हो जायंगी या ज्ञात हो जायंगी। इस कारण कोई भी वस्तु परमार्थरूपसे अर्थक्रियाको करनेवाली नहीं बन सकेगी। इस प्रकार भला यथार्थ वस्तुपनकी व्यवस्था कैसे होगी? तुम्हीं जानों। भावार्थ-ज्ञान ही तो वस्तुओंके व्यवस्थापक हैं। और ज्ञानोंको यों ही कोरे मिथ्या संस्कारोंसे उत्पन्न हुये मानलेनेपर कोई वस्तु यथार्थ नहीं ठहरती है । बौद्धोंके मत अनुसार यों उपपत्ति करली जायगी कि देवदत्तको अग्निका ज्ञान हुआ । वह स्वप्नज्ञानके समान यों ही मस्तिष्कविकारसे हो गया है । अग्निके उष्णस्पर्शका ज्ञान भी झूठे संस्कारके वश हो गया । देवदत्तका शरीर भुरस गया है। यह भी वासनाओंसे ही ज्ञात हो रहा है । भुरसनेकी पीडा भी वासनाओंसे ही प्रतीत हो रही है।