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तत्वार्यचिन्तामणिः
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तदेवं निर्बाधबोधाधिरूढे प्रसिद्धेप्येकत्वे सादृश्ये च भावानां कल्पनैवेयमेकत्व सादृश्यावभासिनी दुरंतानाद्यविद्योपजनिता लोकस्येति ब्रुवाणः परमदर्शनमोहोदयमेवात्मनो ध्रुवमवबोधयति ।
तिस उपर्युक्त क्रमसे इस प्रकार पदार्थोंके एकत्वं और सादृश्यका बाधारहित ज्ञानमें प्राप्त हो जाना प्रसिद्ध हो चुकनेपर भी बौद्ध विनाकारण यह कहे जा रहा है कि यह सादृश्य और एकत्वका प्रतिभास करनेवाली प्रतीति तो कल्पना ही है, जो कि कठिनतासे अन्त आनेवाली अनादिकालीन लगी हुई अविद्यासे लौकिक जीवोंके उत्पन्न हो जाती है । इस प्रकार कह रहा बौद्ध स्वयं अपने ही अत्यधिक दर्शनमोहनीय कर्मके उदयको निश्चयसे समझा रहा है । अच्छी दोनों आंखों से युक्त मनुष्योंको एकाक्ष कहनेवाला स्वयं अपने अन्धेपनको प्रगट कर रहा है ।
सह क्रमादिपर्यायव्यापिनो द्रव्यस्यैकत्वे न सुप्रतीतत्वात् । सादृश्यस्य च पर्यायसामान्यस्य प्रतिद्रव्यव्यक्तिव्यवस्थितस्य समाना इति प्रत्ययविषयस्योपचारादेकत्वन्यव - हारभाजः सकलदोषा संस्पृष्टस्य सुस्पष्टत्वात् । ततस्तद्विषयप्रत्यभिज्ञानसिद्धिरनवद्यैव ।
गुणस्वरूप सहभावीपर्याय और अर्थ, व्यंजनपर्यायरूप क्रमभावी परिणाम तथा सप्तभंगीके विषय वास्तविक कल्पित धर्म एवं पर्यायशक्तिरूप अधिक कालस्थायी गुणों में व्यापर हे द्रव्यकी एकत्वपनसे भले प्रकार प्रतीति हो रही है । और प्रत्येक द्रव्यव्यक्तियों में समानपने से व्यवस्थित हो 1 रहीं पर्यायें सादृश्य हैं । यह भी अच्छा प्रतीत हो रहा है । घट, रुपया, एकेन्द्रिय जीव, आदि पदार्थोंमें कुछ ऐसे परिणाम होते हैं, जिनसे ये उनके समान हैं, ऐसा प्रत्यय हो जाता है । पृथ्वीकायिक जीव, जलकायिकजीव के समान है । एकेन्द्रियपनका परिणाम दोनोंमें एकसा है। वस्तुभूत परिणाम हुये विना सम्यक्ज्ञान भला किसको जानें ? जगत् में जितने कार्य हो रहे हैं, वे सब वस्तुभूत कारणोंपर अबलम्बित हैं । मिट्टीकी बनी हुई गाय दूध नहीं देती है । हां, छाया कर देना बोझ घर देना आदि अपने योग्य अर्थक्रियाओंको अवश्य करती है । इसी प्रकार यह इसके समान है, यह ज्ञान भी वास्तविक परिणामकी भित्तिपर डटा हुआ है। अनेक समान घटोमें न्यारा न्यारा सदृश परिणाम बन रहा है । जैसे कि उनका व्यक्तित्व ( विशेष ) परिणाम बनता रहता है । उन अनेक सादृश्योंको एकपनका व्यवहार करके यह सदृश है, ऐसी प्रतीति हो जाती है । वस्तुतः ये सदृश धर्मोंको धारनेवाले हैं। यों अच्छा प्रतीति होता है । यह इसके समान है, ऐसे ज्ञानके विषय हो रहे, और उपचार से एकपनके व्यवहारको घर रहे तथा सम्पूर्ण दोषोंसे कथमपि नहीं छुये गये सादृश्यका अच्छा स्पष्टज्ञान हो रहा है । अवान्तर सत्ताओंके समुदायरूप महासत्ता को भी एकपना उपचरित है । तिस कारण उस सादृश्यको विषय करनेवाले प्रत्यभिज्ञानकी सिद्धि निर्दोष ही हो चुकी। यहांतक संज्ञा नामक मतिज्ञानका निर्णय करा दिया है। अब चिंता मतिज्ञानको साधते हैं।
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