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तत्वार्यश्लोकवार्तिक
न च प्रतीयते स्वलक्षणात्मकोर्थो यस्य हेतुत्वं धर्मः कल्पते यस्तु प्रतीयते नासावर्थोऽमिमत इति । किंच तल्लिंगमाश्रित्य क्षणिकपरमाणुस्वलक्षणानुमानं प्रवर्तेत यत्सादृश्यज्ञानवैशयातिभासस्य बाधकं स्यात् । ततो विश्वस्तबाधं वैसादृश्यज्ञानवत्सादृश्यवैशयमिति । परमार्थसत्सादृश्यं प्रत्यभिज्ञानस्य विषयभावमनुभवत्येकत्ववत् ।
तथा स्वलक्षणरूप अर्थ बौद्धोंके कथन अनुसार प्रतीत भी नहीं हो रहा है। जिसका कि धर्म हेतुपना कल्पित कर लिया जाय और जो सामान्य विशेषआत्मक अर्थ प्रतीत हो रहा है, वह तो बौद्धोंने वस्तुभूत अर्थ नहीं माना है । यह विषमता छाई हुई है। दूसरे हम यह पूछते हैं कि उस लिङ्गका आश्रय कर क्षणिक और परमाणुरूप स्वलक्षणका साधक भला कौनसा अनुमान प्रवर्तेगा ! जो कि हमारे माने हुये सादृश्यज्ञानके विशद हो रहे प्रतिभासका बाधक हो जाय । अनुमानज्ञान तो व्याप्तिग्रहणके अनुसार सामान्यरूपसे ही साध्यको जान सकेगा। पहिले कालमें व्याप्तिग्रहण किये गये दृष्टान्तनिष्ठ हेतुके सादृश्यका ज्ञान होनेपर ही पक्षनिष्ठ सदृश हेतुसे साध्यकी सिद्धि हो सकेगी। इस ढंगसे तो सादृश्य ही सिद्ध हो जाता है । तिस कारण अपनी ओर आई हुई बाधाओंका विध्वंस करता हुआ सादृश्यका विशदज्ञान होना सिद्ध हो जाता है, जैसे कि विसदृशपनेका ज्ञान विशद सिद्ध हो रहा है । इस कारण परमार्थस्वरूपसे विद्यमान हो रहा सादृश्यपदार्थ तो प्रत्यभिज्ञानके विषयपनका अनुभवन कर रहा है, जैसे कि पूर्वोत्तर पर्यायोंमें वर्त रहा एकपना प्रत्यभिज्ञानका विषय साध दिया गया है । अन्य भी प्रत्यभिज्ञानके विषय हो जाते हैं जैसे कि किसी विशिष्ट स्थानको जानेवाले दो मार्गीका अनुभव कर यह इससे दूर है, ऐसा दूरत्वग्राही प्रत्यभिज्ञान होता है । मुखके ऊपर मध्यमें एक सींगवाला पशु गेंडा कहलाता है। ऐसा सुनकर विचित्र वस्तु संग्रहालय ( अजायब घर ) में वैसा पशु दीख जानेसे यही गेंडा है, यह ज्ञान भी प्रत्यभिज्ञान है । सात पत्तोंके बने हुये अनेक गुच्छोंसे युक्त सप्तपर्णवृक्ष होता है । उत्तम शटासहित केसरी सिंह होता है, इत्यादि वाक्योंके संस्कार युक्त पुरुष द्वारा वैसे पदार्थका प्रत्यक्ष कर चुकनेपर सप्तपर्ण, सिंह आदिका ज्ञान प्रत्यभिज्ञान है । यहां मुख्यतासे एकत्व और सादृश्यको जाननेवाले प्रत्यभिज्ञानको साधकर अन्य प्रत्यभिज्ञानोंका उपलक्षण कर दिया है।
तदविद्याबलादिष्टा कल्पनैकत्वभासिनी।
सादृश्यभासिनी चेति वागविद्योदयादुध्रुवम् ॥ ८४॥ ___एकत्वका प्रकाश करनेवाली और सादृश्यका प्रतिभास करनेवाली वह प्रतीति अविद्याकी सामर्थ्यसे हो रही है, यह हम बौद्धोंको अभीष्ट है । ग्रन्थकार कहते हैं कि इस प्रकार बौद्धोंका वचन ही स्वयं अविद्याके उदयसे प्रवर्त रहा है, यह पक्की बात समझो । अर्थात् यथार्थ वस्तुमें हो रहे प्रमाणज्ञानको अविद्यासे जन्य कहनेवाला बौद्ध स्वयं अविद्यासे पीडित हो रहा है।