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तत्वार्य लोकवार्तिके
सामानाकारता स्पष्टा प्रत्यक्षं प्रतिभासते । वर्तमानेषु भावेषु यथा भिन्नखभावता ॥ ८३ ॥
उसी प्रकार वर्तमान कालमें विद्यमान हो रहे पदार्थोंमें समान आकारधारीपना स्पष्ट होकर प्रत्यक्षका विषय होता हुआ प्रतिभास रहा है, जिस प्रकार कि पदार्थोंमें भिन्न भिन्न स्वभाव सहितपना दीखरहा है। अर्थात् यह इससे न्यारा है इसका स्वभाव इससे भिन्न है, इत्यादि व्यावृत्ति बुद्धियोंसे जैसे पदार्थोंमें विशेष प्रतिभासित होता है, उसीके समान यह भी द्रव्य है, यह उसके समान है, ब्राह्मण शूद्र दोनों भी मनुष्य हैं, इत्यादि अन्वय बुद्धिके द्वारा सामान्य भी स्पष्ट दीख रहा है। : इदानींतनतया प्रतिभासमाना हि भावास्तेषु यथा परस्परं भिन्नरूपं प्रत्यक्षे स्पष्टमवभासते तथा समानमपीति सदृशेतरात्मकं स्वलक्षणं सिद्धमन्यथा व्योमारविंद वत्तस्यानवमासनात् । स्पष्टावभासित्वं समानस्य रूपस्य भ्रांतमिति चेत् , भिन्नस्य कथमभ्रांतं । बाधकामावादिति चेत्, सामान्यस्य स्पष्ठावभासित्वे किं बाधकमस्ति ? न ताव स्प्रत्यक्षं स्वलक्षणानि पश्यामीति प्रयतमानस्यापि स्थूलस्थिराकारस्य साधनस्य स्फुटं दर्शनात् । तदुक्तं । " यस्य स्वलक्षणान्येकं स्थूलमक्षणिकं स्फुटम् । यद्वा पश्यति वैशचं तद्विद्धि सशस्मृतेः ॥” इति ।
इस समय वर्तमानकालमें वर्त्तरहे स्वभावसे प्रतिभास रहे जो पदार्थ हैं उनमें परस्परमें एक दूसरेसे भिन्न हो रहे स्वरूपका जैसे स्पष्ट प्रतिमास होता है । तिस ही प्रकारखे पदार्थ परस्परमें समान हैं। इस ढंगसे समानरूपका भी प्रत्यक्षमें स्पष्ट प्रकाश हो रहा है । इस प्रकार सदृश और विसदृश धर्मस्वरूप स्खलक्षण पदार्थ सिद्ध हुआ । अन्यथा यानी निःस्वरूप उस सामान्य विशेष रहित स्खलक्षणका आकाश कमलके समान किसीको कभी प्रकाशन नहीं होता है । बौद्ध कहते हैं कि पदार्थोके सामान्यस्वरूपका स्पष्ट प्रतिभास होना तो भ्रान्त है । वस्तुभूत विशेषात्मक स्वलक्षणका ही स्पष्ट प्रकाश होता है । अवस्तुभूत सामान्यका नहीं । इस प्रकार कहनेपर तो हम बौद्धोंसे पूछते हैं कि वैसादृश्य यानी एक दूसरेसे सर्वथा भिन्नरूपका प्रतिभास होना भ्रान्तिरहित भला कैसे कहा जायगा ! अर्थात् पदार्थोंमें वैसादृश्यका जानना भी भ्रमरूप हो जायगा । तिसपर बौद्ध यदि यों कहें कि वैसादृश्यका जानना बाधक प्रमाण न होनेके कारण अभ्रांत है । ऐसा कहनेपर तो हम जैन कहेंगे कि सामान्यका स्पष्ट प्रकाश होनेमें क्या कोई बाधक प्रमाण खडा हुआ है। बताओ ! "सबसे प्रथम प्रत्यक्षज्ञान तो सादृश्यका बाधक नहीं है । प्रत्युत साधक है, स्वलक्षणोंको मैं देख रहा हूं। इस प्रकार प्रयत्न कर रहे भी पुरुषके अर्थक्रियाको साधनेवाले स्थूल, स्थिर, साधारण,