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तत्वार्थचिन्तामणिः
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( सादृश्य ) आकारवाले अर्थका स्पष्ट प्रदर्शन हो रहा है। अर्थात् प्रत्यक्ष द्वारा सर्वथा सूक्ष्म, क्षणिक, विसदृश, ऐसे कोई पदार्थ नहीं दीख रहे हैं । किंतु स्थूल, कालान्तरतक ठहरनेवाले, सदृश, अर्थीका विशद प्रत्यक्ष हो रहा है । वही हमारे यहां प्रन्थोंमें कहा है कि जिसके यहां स्वलक्षणोंको जाननेवाला प्रत्यक्ष ही एक, स्थूल, अक्षणिक, ऐसे पदार्थको स्पष्ट देख रहा है, अथवा जिस प्रकार वैशद्यरूप होय उस प्रकार देख रहा है, उसीके समान सादृश्यको भी प्रत्यक्षज्ञान स्पष्ट देख रहा है । क्योंकि पीछेसे सदृश पदार्थकी स्मृति हो जाती है । भावार्थ-सादृश्यको यदि प्रत्यक्षने न देखा होता तो पीछे स्मरण कैसे हो जाता ! भला तुम ही बताओ ! अतः पीछेसे सादृश्यकी स्मृति होनेसे समझलो कि सादृश्यका प्रत्यक्ष हो जाता था।
नाप्यनुमानं लिंगाभावात् । स्वस्वभावस्थितलिंगादुत्पन्न भिन्नस्वलक्षणानुमान सादृश्यज्ञानवैशयस्य बाधकज्ञानमिति चेत्र, तस्याविरुद्धत्वात् । तथाहि- .
__ सामान्यको स्पष्टरूपसे देखनेमें अनुमान भी बाधक नहीं है। क्योंकि ऐसे अनुमानका उत्यापन करनेवाला कोई हेतु नहीं है । बौद्ध यदि यों कहैं कि प्रत्येक पदार्थ या पर्याय अपने अपने स्वभावमें स्थित हो रहे हैं । इस कारण सम्पूर्ण स्वलक्षण सर्वथा भिन्न हैं। कोई किसीके सदृश नहीं है । अतः स्वस्वभाव व्यवस्थितरूप लिङ्गसे सर्वथा विसदृश स्वलक्षणोंको जाननेवाला अनुमानज्ञान जैनों द्वारा माने हुये सादृश्यके विशदज्ञानका बाधक है । ग्रन्थकार कहते हैं कि यह तो न कहना। क्योंकि वह अनुमान सादृश्यसिद्धि के विरुद्ध नहीं है। इसी बातको हम स्पष्ट कर दिखलाते हैं।
.. ..... .. ___ सदृशेतरपरिणामात्मकाः सर्वे भावाः स्वभावव्यवस्थितेरन्यथानुपपत्तेः । वस्वभावो हि भावानामबाधितप्रतीतिविषयः समानेतरपरिणामात्मकत्वं तस्य व्यवस्थितिरुपलब्धिस्तस्यैव साधिका न पुनरन्यत्र भिन्नस्य स्वलक्षणस्य जातुचिदनुपलभ्यमानस्य हेत्वसिद्धिप्रसंगात् । तेन हेतवस्तत्र प्रत्युक्ताः ते हि यथोपलभ्यते तथा तैरुररीक्रियते अन्यया वा ? प्रथमपक्षे विरुद्धाः साध्यविपरीतस्य साधनात्तस्यैव सत्वादिखभावेनोपलभ्यते। यदि पुनः पराभिमतखलक्षणस्वभावाः सत्वादयो मतास्तदा तेषामसिद्धिरेव । न च खयमसिद्धास्ते साध्यसाधनायालं ।
सम्पूर्ण पदार्थ (पक्ष ) सदृश और विसदृश परिणाम स्वरूप हैं ( साध्य )। क्योंकि वे अपने अपने स्वभावोंमें व्यवस्थित हो रहे हैं । यह व्यवस्था अन्यथा यानी सदृश विसदृश स्वरूप माने विना नहीं बन सकती है । सम्पूर्ण पदार्थीका अपना अपना स्वभाव बाधारहित प्रतीतियोंका विषय होता हुआ सामान्य विशेष परिणामस्वरूप है। उसकी व्यवस्था यानी