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तत्त्वार्यचिन्तामणिः
विसदृशानां भावो हि वैसादृश्यं तच पदार्थेभ्यो भिन्नमभिन्नं भिन्नाभिन्नं वा स्यादतोऽन्यगत्यभावात् । सर्वथा सादृश्यपक्षभावी दोषो दुर्निवार इति कृतस्तत्सिद्धिः ।
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विलक्षण पदार्थों का भाव वैसादृश्य माना गया है और वह विसमानता विलक्षण पदार्थोंसे भिन्न है ? या अभिन्न है ? अथवा भिन्न अभिन्न है ? बताओ । इससे अन्य कोई गति नहीं, यानी कोई उपाय नहीं है । इन तीनों पक्षोंमें वे ही सादृश्यके पक्ष में लागू होनेवाले दोष सभी प्रकार कठिनता से भी नहीं हटाये जा सकते हैं। इस प्रकार बताओ, उस वैसादृश्य की सिद्धि कैसे होगी ? अर्थात् विभिन्न पदार्थोंमें पडी हुई विसमानता यदि उनसे सर्वथा भिन्न है तो " यह उनकी है " यह व्यवहार सर्वथा भेदपक्ष में नहीं हो सकता है। संबंध मानोगे तो सर्वथा भिन्न पडे हुये विसमान पदार्थ और वैसादृश्यका समवाय बौद्धोंने समवायको माना भी नहीं है । तादात्म्य संबंध माननेपर उठानेसे पूर्वोक प्रकार वैसादृश्य बहुत्व और अनवस्था नामके विशदृश अर्थोके सर्वथा अभेद माननेपर पदार्थोंके एक हो जानेका प्रसंग है । भिन्न अभिन्न पक्षमें विरोध आदिक दोष लगेंगे । इस प्रकार बौद्धोंके यहां विशदृशपने की भी सिद्धि नहीं हो सकेगी ।
संबंध तो नहीं सम्भावता है । पूर्णदेश और एकदेशका विकल्प दोष आते हैं। वैसादृश्य और
सादृश्यद्वैसादृश्यमपि न परमार्थमर्थक्रियाशून्यत्वात् स्वलक्षणस्यैव सत्त्वस्य परमार्थत्वात् तस्यार्थक्रिया समर्थत्वादिति चेत्
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बौद्ध कहते हैं कि चलो अच्छा हुआ, हम तो सादृश्यके समान वैसादृश्यको भी वास्तविक नहीं मानते हैं । क्योंकि विसदृशपना किसी भी अर्थक्रियाको नहीं करता है । सदृशविशदृशपने से रहित स्वलक्षणका तत्व ही अनेक अर्थक्रियाओंके करने में समर्थ है। इस प्रकार कहनेपर तो आचार्य महाराज उत्तर देते हैं ।
न वैसादृश्यसादृश्यत्यक्तं किंचित्स्वलक्षणं ।
प्रमाणसिद्धमस्तीह यथा व्योमकुशेशयं ॥ ८२ ॥
वैसादृश्य विशेष ) और सादृश्य ( सामान्य ) से रहित हुआ कोई भी बौद्धों का माना हुआ स्वलक्षण यहां प्रमाणोंसे सिद्ध नहीं है। जैसे कि आकाशका कमल सामान्यविशेषोंसे रहित होता हुआ प्रमाणसिद्ध नहीं है, यानी असत् है ।
प्रत्यक्ष संविदि प्रतिभासमानं स्पष्टं स्वलक्षणमिति चेत्
बौद्ध कहते हैं कि स्वलक्षण तो प्रत्यक्षज्ञान में स्पष्टरूपसे प्रतिभास रहा है। ऐसा कहनेपर तो आचार्य उत्तर देते हैं कि
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