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तत्त्वार्यश्लोकवार्तिके ,
प्रसंगात् । कल्पनारोपितादेव खार्थसंवादात्ममाणत्वे मनोराज्यादिविकल्पकलापस्य प्रमाणत्वानुषंगात ताहक्संवादस्य सद्भावादिति कश्चित् तं प्रत्याहा.. बौद्ध ही कहे जा रहे हैं कि सादृश्यको अर्थोसे भिन्न और अभिन्न यह कहना भी अयुक्त है। क्योंकि एक ही धर्मको भिन्न और अभिन्न कहने में विरोध दोष आता है। तथा दूसरे उभय नामके दोषका भी प्रसंग होता है । देखिये । वह सादृश्य सदृश अर्थोसे जिस स्वरूप करके भिन्न है, उस ही स्वरूप करके अभिन्न कहा जा रहा है । यह कहना विरुद्ध आ पडता है। यदि वह सादृश्य दूसरे स्वभावोंसे भिन्न है, और उनसे न्यारे अन्य तीसरे स्वभावोंसे अभिन्न है, ऐसा नियम करनेसे विरुद्ध दोष तो हट गया, किन्तु उस उभय नामके दोषका प्रसंग आया । जैनोंके उस भेद अभेद पक्षमें लग रहे संशय, वैयधिकरण्य, संकर, व्यतिकर, अनवस्था, अप्रतिपत्ति, अभाव इन दोषोंका भी कठिनतासे ही निवारण हो सकता है। जिस स्वभावसे भेद या अभेद हैं उनमें परिवर्तन कर संशय उठाना संशय दोष है। भेद और अभेदका नियम करनेवाले स्वभावोंका न्यारा न्यारा अधिकरण होना यह वैयधिकरण्य है। भेद अभेद दोनोंका एक ही समय वहीं प्राप्त हो जाना संकर है । परस्परमें विषयगमन करना व्यतिकर है । अकेले भेदवाले और अभेदवालेमें पुनः भेद अभेद माननेकी जिज्ञासा बढ जानेसे अनवस्था होती है । ठीक समझनेका कोई उपाय शेष न रहनेसे धर्म और धर्मीकी अप्रतिपत्ति हुई । तब तो अन्तमें जाकर उन धर्म धर्मियोंका अभाव हो जाता है । इस कारण उक्त प्रक्रियासे तुम्हारा माना हुआ सादृश्य पदार्थ हम बौद्धोंके विचारोंको नहीं सह सकता है । अतः कल्पनासे गढ लिया गया ही सादृश्य है, वस्तुभूत नहीं है। ऐसे सादृश्यको विषय करनेवाला प्रत्यभिज्ञान तो अपने विषयमें बाधवैधुर्यरूप सम्वादसे रहित होता दुआ प्रमाण कैसे भी नहीं है । अन्यथा अतिप्रसंग हो जायगा, यानी सम्वादरहित हो रहे संशय, विपर्ययज्ञान भी प्रमाण बन बैठेंगे । तथा कल्पनासे आरोपे गये ही स्वार्थक सम्वादसे यदि प्रमाणपना व्यवस्थित किया जायगा तो खेलनेवाले बालक, या मद्यपायी अथवा स्वप्नदर्शी पुरुषके मनमें गढ लिये गये राजापन, पण्डितपन, जगत्सेठपन, आदि विकल्पज्ञानोंके समुदायको भी प्रमाण बननेका प्रसंग हो जायगा । क्योंकि तैसा कल्पित सम्वाद तो कल्पना ज्ञानोंमें विद्यमान है । इस प्रकार बडी देरसे कोई कह रहा है । उस बौद्धके प्रति आचार्य महाराज अब स्पष्ट उत्तरपक्ष कहते हैं ।
भेदाभेदविकल्पाभ्यां सादृश्यं येन दूष्यते । । . वैसादृश्यं कुतस्तस्य पदार्थानां प्रसिध्यतु ॥ ८१॥ .: जिस बौद्धवादी करके भेद और अभेदका विकल्प उठाकर सादृश्यको दूषित किया जारहा है, उस बौद्धके यहां पदार्योका विसदृशपना भला कैसे प्रसिद्ध होवेगा ? बताओ । सादृश्यके ऊपर जो विकल्प उठाये गये हैं वैसे ही विकल्प वैसादृश्यके ऊपर उठाकर दूषण देदिये जायेंगे ।