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तरवार्थचिन्तामणिः
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फिर एक ही सादृश्यका अनेक व्यक्तियोंमें एक एक देशसे समवाय संबंध द्वारा ठहरना मानोगे तब तो वह सादृश्य अपने एक एकदेशरूप अवयवोंसे सहित हो जावेगा । और तैसा होनेपर उस सादृश्यका अपने अवयवोंके साथ पुनः संबंधका विचार होनेपर वही प्रश्न खडा होता रहेगा अर्थात् अपने एक एक अवयवमें वह सादृश्य अपने एकदेशसे ठहरेगा, ऐसी दशामें फिर उसके अवयव मानने पडेंगे और उन अवयवों में भी पहिलेसे अपने अनेक अवयवोंको धारता हुआ सादृश्य एक एक अंशसे ठहरेगा। इस प्रकार अनवस्था होती है । अतः सदृश पदार्थोंसे भिन्न पडे हुये सादृश्यकी सिद्धि जैनोंद्वारा न हो सकी ।
यदि पुनरभिनं सादृश्यमर्थेभ्योऽभ्युपगम्यते तदापि तस्यैकत्वे तदभिन्ना नामर्थानामेकत्वापत्तिरेकस्मादभिन्नानां सर्वथा नानात्वविरोधात् । पदार्थनानात्ववद्वा तस्य नानात्वे*योऽनर्थान्तरस्य सर्वयैकत्वविरोधात् । तथा चोभयोरपि पक्षयोः सादृश्यासंभवः । सादृश्यवतां सर्वयैकत्वे तत्र सादृश्यानवस्थानात् । सादृश्यं सर्वथा नाना चेत् सादृश्यरूपतानुपपत्तेः ।
यदि फिर सदृश अर्थोंसे सादृश्यको अभिन्न स्वीकार करोगे तो भी उस सादृश्यको यदि एक माना जायगा तो उस सादृश्यसे अभिन्न हो रहे अर्थोके भी एकपनका प्रसंग होता है । क्योंकि जो एक पदार्थसे अभिन्न हो रहे हैं। उनके सर्वथा अनेकपनका विरोध है अथवा अभेदपक्ष में पदार्थों के अनेक पनके समान उस सादृश्यको भी अनेकपना प्राप्त होगा । अनेकोंसे अभिन्न हो रहे पदार्थको सभी प्रकार एकपन हो जानेका विरोध है । किन्तु मीमांसकोंने अनेकोंमें रहनेवाले भी सादृश्यको एक ही इष्ट किया है । अतः उक्त प्रकारसे भिन्न अभिन्न दोनों भी पक्षोंमें सादृश्यका बनना असम्भव है । सादृश्यवाले गौ, घट, मुद्रा, आदि पदार्थोंको सर्वथा एक हो जाना माननेपर तो उस एकमें सदृशपना व्यवस्थित नहीं होगा । छोटीसे छोटी भी नदीके दो किनारे होने चाहिये। दूसरे पदार्थ के आवातसे ही ताली बजसकती है। इसी प्रकार एक हीमें रहनेवाला सादृश्य नहीं होता है । तभी तो साहित्यवालोंने " गगनं गगनाकारं सागरः सागरोपमः " यहां उपमालंकार नहीं मानकर अनन्वय माना है । यदि सादृश्यको व्यक्तियों के समान सर्वथा अनेक मानोगे तो उसको सादृश्यरूपपना नहीं बन पाता है । अनेकोंमें पडे हुये एकसे रूपको सादृश्य कहते हैं। जो स्वयं अनेक होकर सर्वथा न्यारा न्यारा हो रहा है, वह सादृश्य नहीं है, किन्तु मित्रता है ।
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सादृश्यमर्थेभ्यो भिन्नाभिन्नमिति चायुक्तं विरोधादुभयदोषानुषंगाच्च । तदर्थेभ्यो येनात्मना भिन्नं तेनैवाभिनं विरुध्यते । परेण भिन्नं तदन्येनाभिनमित्यवधारणात्तदुभय दोषप्रसक्तिः । संशयवैयधिकरण्यादयोपि दोषास्तत्र दुर्निवारा एवेति सादृश्यस्य विचारासहत्वात् कल्पनारोपितत्वमेव तद्विषयं च प्रत्यभिज्ञानं स्वार्थे संवादशून्यं न प्रमाणं नामादि