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तत्वार्थकोकवार्तिक
नन्विदं सादृश्यं पदार्येभ्यो यदि भिन्नं तदा कुतस्तेषामिति प्रदृश्यते । संबंधवत्त्वाचे कर पुनः सादृश्यतद्वतामांतरभूतानामकार्यकारणात्मनां संबंधः ? समवाय इति चेद, का पुनरसौ ? न तावत्पदार्थातरमनभ्युपगमात् । ___वैशेषिक और नैयायिक सादृश्यको न्यारा पदार्थ नहीं मानते हैं । नियत माने जा रहे दम्य आदि पदार्थोंमें गर्मित कर लेते हैं । सादृश्यको मीमांसक स्वतंत्र पदार्थ मानते हैं। जैन विद्वान् प्रकृत वस्तुमें हो रहे अन्य कतिपय पदायोंके सदृश परिणमनको सादृश्य कहते है । बौद्ध विद्वान् सादृश्यको सर्वथा स्वीकार नहीं करते है। इस प्रकरणमें सादृश्य प्रत्यभिज्ञानके विषयको असिद्ध करनेके लिये बौद्धोंका लम्बा चौडा पूर्वपक्ष है । बौद्ध प्रथम ही प्रश्न उठाते हैं कि यह सदृशपना पदि पदार्थोसे मिन है, तब तो उन पदार्थोका यह सादृश्य है ऐसा कैसे भला दिखलाया जाता है! बताओ। जो जिससे सर्वथा भिन्न होता है, उन पदार्थोमें स्वस्वामी आदि संबंधको कहनेवाली षष्ठी विमति नहीं उतरती है । जैसे कि सुदर्शनमेरुका स्वयम्भूरमण समुद्र है, यह षष्ठी विभक्ति शोभा नहीं देती है। क्योंकि सुदर्शनमेरुसे स्वयंभूरमण समुद्र सर्वथा भिन्न है। मिलता जुलता नहीं है। यदि जैन लोग भेद रहनेपर भी सदृश पदार्थ और सादृश्यका संबंध हो जानेसे " उनका यह सादृश्य है " यह व्यवहार करेंगे तब तो हम पूछते हैं कि सर्वथा मिन मिल पडे हुये और कार्यकारणस्वरूप नहीं हो रहे उन सादृश्य और सादृश्यवान् अर्थोका फिर कौन संबंध माना गया है! बताओ। यदि सदृश और सादृश्यका समवाय संबंध है यों कहोगे तब तो फिर हम बौद्ध पूछते है कि वह समवाय फिर क्या पदार्थ ! बताओ । वैशेषिकोंके समान छठवां स्वतंत्र न्यारा पदार्थ तो समवाय है नहीं। क्योंकि जैनोंने वैशेषिकोंके समवायको स्वीकार नहीं किया है। ___अविश्वग्भाव इति चेत् सर्वात्मनैकदेशेन वा, प्रतिव्यक्ति । सर्वात्मना चेत्सादृश्यबहुस्वप्रसंगः । न चैकत्र सादृश्यं तस्यानेकस्वभावत्वात् । यदि पुनरेकदेशेन सादृश्यं म्यक्तिषु समवेतं तदा सावयवत्यं स्यात् । तथा च तस्य स्वावयवैः संबंधचिंतायां स एव पर्यनुयोग इत्यनवस्था।
बौद्ध ही कह रहे हैं कि वह समवाय यदि अविश्वग्भावरूप है यानी पृथग्भाव न होने देना स्वरूप है, तब तो हम बौद्ध आप जैनोंको पूछते हैं कि वह सादृश्य सम्पूर्ण अंशोंसे रहेगा ! या एकदेशसे ठहरेगा ! यदि घट, गौ, आदि प्रत्येक व्यक्तियोंमें पूर्णरूपसे सादृश्य ठहर जायगा, तब तो बहुतसे सादृश्य होनेका प्रसंग होता है । जो अनेक व्यक्तियोंमें प्रत्येकमें पूरे भागोंसे ठहरता है, वह एक नहीं अनेक है । दूसरी बात यह है कि एक ही व्यक्तिमें पूरे अंशोंसे जब सादृश्य ठहर गया तो उस एक ही में ठहरनेवालेको सदृशपना प्राप्त नहीं होता है। क्योंकि वह सादृश्य तो अनेकोंका स्वभाव हो रहा है । अर्थात सादृश्य दो आदि व्यक्तियोंमें रहता है । एकमें नहीं, यदि